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________________ १४६ आप्तवाणी-५ वृत्ति बहे निज भाव में प्रश्नकर्ता : चित्त शुद्ध होने के बाद अंतरात्मा का ज्ञान जो प्रकट करता है, उसमें बाह्य आवरणों को मुक्त रखता है । इसलिए मन एकदम बाह्य विचारों की तरफ नहीं झुकता है, परन्तु आंतरिक विचारों की तरफ अधिक झुकता है। दादाश्री : यानी कि जो वृत्तियाँ पहले बाहर भटकने जाती थीं, वे अब वापिस अंदर आती हैं, खुद के घर आती हैं। प्रश्नकर्ता : उसमें मन की लागणीओ ( भावुकतावाला प्रेम, लगाव) में कुछ बदलाव आता है क्या ? दादाश्री : कुछ भी बदलाव हो सके ऐसा नहीं है। मन जड़ है। जो बाहर जाता है, वह परमानेन्ट वस्तु नहीं है । प्रतिक्षण वह बदलता रहता है । इसमें परमानेन्ट हम ‘स्वयं' हैं। बाकी यह सब तो बदलता ही रहेगा। आपको सिर्फ भासित होता है कि यह बरसात होगी और वह खत्म हो जाएगा ! वह सिर्फ भास्यमान परिणाम है । उसका कोई लम्बा अर्थ नहीं है । यानी हमें क्या भासित होता है? किसे यह भासित होता है? उसका पता लगाना पड़ेगा। चित्त ‘दादा भगवान' को याद करे, हर किसीमें 'दादा' दिखें, वह चित्त बहुत अच्छा कहलाता है । ऐसा बहुतों को रहता है। अधिक या कम मात्रा में होता है। ‘दादा भगवान' वही खुद के 'शुद्धात्मा' हैं यानी चित्त शुद्धात्मा में रखो या 'दादा भगवान' में रखो, वह समान ही है। दोनों चित्त को शुद्ध ही रखते हैं। संसारी चित्त, वह अशुद्ध चित्त कहलाता है । अशुद्ध चित्त मिश्रचेतन है। वह चित्त शुद्ध हो जाता है, तब शुद्ध चेतन हो जाता है। शुद्ध चित्त अर्थात् शुद्ध चेतन। ‘मैं शुद्धात्मा हूँ' वह लक्ष्य बैठ गया, वही हमारा स्वरूप है। उसे अंतरात्मदशा कहते हैं I चित्त और प्रज्ञा प्रश्नकर्ता : प्रज्ञाशक्ति बाहर जाती है? चित्त की तरह ?
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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