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________________ १३८ आप्तवाणी-५ गलत हो रहा है। यह करना ही नहीं चाहिए', ऐसा गाते रहना चाहिए। द्रव्य अब हाथ में नहीं रहा। पानी का बर्फ बन गया। अब किस तरह उसकी धारा बनेगी? ढेर ही बनेगा। प्रश्नकर्ता : गलत कर रहे हों उस समय भाव तो ऐसा होना चाहिए न कि मुझसे ऐसा नहीं होना चाहिए या फिर ज्ञाता-दृष्टा ही रहना चाहिए? दादाश्री : ज्ञाता-दृष्टा रहने को और प्रतिक्रमण करने को कहा है न? प्रश्नकर्ता : परन्तु भाव तो नहीं ही होना चाहिए न? दादाश्री : भाव तो होगा परन्तु 'आपको' तो चंदूभाई को जागृति देनी है कि प्रतिक्रमण करो। अतिक्रमण किसलिए किया? पूरा दिन क्रमण होता है। अतिक्रमण नहीं होता है पूरे दिन। घंटे में एकाध-दो बार होता है, उसका आपको प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। आपको अपनी सभी कमजोरियों को जानना चाहिए। अब आप खुद कमज़ोर नहीं हो। आप तो आत्मा हो गए, परन्तु अज्ञानदशा में इसके मूल उत्पादक तो आप ही थे न? इसलिए आपको पड़ोसी की तरह कहना चाहिए कि, 'चंदूभाई, प्रतिक्रमण कर लो।' _प्रतिक्रमण तो आप बहुत ही करना। जितने आपके सर्कल में यदि पचास-सौ व्यक्ति हों, जिन-जिन को आपने परेशान किया हो, तो जब खाली समय हो तब बैठकर उन सबके एक-एक घंटा, एक-एक को ढूंढढूंढकर, प्रतिक्रमण करना। जितनों को परेशान किया है, वह फिर धोना तो पड़ेगा न! फिर ज्ञान प्रकट होगा। प्रश्नकर्ता : परन्तु दादा, जिन्होंने मुझे परेशान किया है, उन्हें ही मैंने परेशान किया है। दादाश्री : आपको जिसने परेशान किया होगा, उसका तो वे भोग लेंगे। उसकी जिम्मेदारी आपकी नहीं है। जो परेशान करते हैं उन्हें जिम्मेदारी का भान नहीं है। वे इस जन्म में रोटी खा रहे हैं तो अगले जन्म में चारा खाने में हर्ज नहीं है न उन्हें!
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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