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आप्तवाणी-५
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संयोगों पर काबू हो!
द्रव्य न पलटे, भाव बदले तो... 'द्रव्य न पलटे, भाव फरे तो छूटी शके छे भवनो फजेतो।'
- नवनीत
द्रव्य अर्थात् कर्म फल देने को तैयार हो गया हो, वह। द्रव्य नहीं पलटता उसका उदाहरण देता हूँ। एक मनुष्य को चोरी की आदत पड़ी हुई हो, वह खुद कहता है कि मुझे छोड़ना है फिर भी नहीं छूटती, ऐसा होता है या नहीं? उसका काल आएगा तभी वह पलटेगा। अब कवि क्या कहना चाहते हैं कि तू रोज़ मन में भाव कर कि चोरी करने जैसी नहीं है। तो चोरी के बीज एक दिन खतम हो जाएँगे और नहीं तो वापिस चोरी करने का भाव करेगा तो फिर से चोरी करने के बीज पड़ेंगे। यानी चोरी में से चोरी ही होगी।
यह वाक्य बहुत गहरा गूढ अर्थवाला है।
अब जिसने स्वरूप का 'ज्ञान' लिया हो उसे क्या करना चाहिए? 'देखते' ही रहना है। 'देखते' रहे तो नया बीज नहीं डलता। फिर किसीको दुःख हो जाए, वैसी चोरी की हो तो हम उससे अधिक क्या कहते हैं कि, 'चंदूभाई, यह अतिक्रमण किया, इसलिए प्रतिक्रमण कर लो।' __पूरा जगत् चोरी करता है, तब फिर चोरी के बीज डलते हैं। रिश्वत लेता है और मन में खटकता रहता है कि यह होना ही नहीं चाहिए। परन्तु यदि कोई कहे कि, 'यह रिश्वत किसलिए लेते हो?' तब वह कहेगा कि, 'तुझमें अक्कल नहीं है। बैठ! इन दो लड़कियों की किस तरह शादी करूँगा?' यानी खुद ने इस रोंग (गलत चीज़) को एन्करेज किया। इसलिए अगला जन्म पक्का हो गया।
अर्थात् इस संसार के मनुष्य तो यदि चोरी करते हों, लुच्चाई करते हों, रिश्वत लेते हों, तो उन्हें मन में ऐसे भाव करने चाहिए कि यह काम