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आप्तवाणी-५
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बँध ही रहा है। वह महाविदेह क्षेत्र में ले जाता है। आज्ञा पालने से धर्मध्यान होता है। वह सभी फल देगा।
प्रश्नकर्ता : जो शुभ ध्यान होता है, वह भी धर्मध्यान माना जाता है न?
दादाश्री : हाँ, परन्तु शुभ ध्यान या अशुभ ध्यान, कर्ता बनें तभी होता है। और इस 'ज्ञान' के बाद विचार आए कि किसीको दान दो तो वह सभी निर्जरा है।
प्रश्नकर्ता : यहाँ पर सत्संग में हम भक्तिपद गाते हैं, उसका क्या?
दादाश्री : वह सब हमारी आज्ञा में आ गया। ज्ञानी की आज्ञारूपी धर्मध्यान का फल सबसे उच्च मनुष्यगति मिलती है। उससे अगला जन्म बहुत सुंदर मिलेगा, हमें तीर्थंकर मिलेंगे, फिर और क्या चाहिए? हम सबको आत्मा तो प्राप्त हो चुका है, सिर्फ तीर्थंकर के अंतिम दर्शन करने बाकी रहे हैं, वह एक ही बार हों, तो बहुत हो गया। केवळज्ञान रुका हुआ है, वह पूरा होगा। 'ज्ञानी पुरुष' तो स्वयं जहाँ तक पहुँचे होते हैं, वहाँ तक ले जाते हैं। उससे आगे नहीं ले जा सकते। आगे तो, जो आगेवाले जो हों उनके पास ले जाते हैं, उसमें किसीका चलेगा ही नहीं न?
एसिड का बर्न या मुक्ति का आस्वादन?!!!
अपने यहाँ वे एक भाई आते हैं न, उनका भतीजा एसिड से जल गया था। अंगारों में गिरना अच्छा परन्तु एसिड बहुत भयंकर है। सभी डॉक्टर घबरा गए कि यह लडका तीन घंटों से अधिक नहीं जीएगा। उस लड़के को हमने 'ज्ञान' दिया था। तो डॉक्टरों से हँसते-हँसते उसने क्या कहा कि, 'आपको मुझे जहाँ से काटना हो वहाँ से काटो। मैं अलग और राजू अलग!' यह सुनकर सब डॉक्टर आवाक् रह गए! वह लड़का बच गया। वह मर ही जाता, यदि यह 'ज्ञान' नहीं मिला होता तो। आधा तो साइकोलोजिकल इफेक्ट से मनुष्य मर जाता है। मुझे क्या हो गया? किस तरह हो गया? यह तो ठीक ही नहीं होगा। जब कि राजू ने तो कहा कि, 'मैं अलग और