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आप्तवाणी-५
दादाश्री : तो फिर आधार रहा ही नहीं। वृत्ति रहेगी ही नहीं। वह जो वृत्ति रहती है वह निराधार की है, आधार की नहीं है। जब से आधारी का आधारभाव छूट जाता है, फिर जो निराधारी हुआ उसकी ही वे वृत्तियाँ हैं। हमें यह लक्ष्य में रहना चाहिए कि ये वृत्तियाँ हमारी नहीं हैं। हममें वृत्ति नाम का कुछ है ही नहीं। हम लोगों की तो निजवृत्ति निजभाव में ही रहा करती है, स्वाभाविक होने के बाद!
अकर्त्तापद द्वारा मनोमुक्ति खुद शुद्धात्मा हो गया इसलिए अकर्ता बना। फिर मन की गाँठ का छेदन होता रहता है, फिर गाँठ फूटे और कर्ता बने तो मन उत्पन्न हो जाता है। आप अकर्त्तापद में होंगे, तब भी मन की गाँठे तो फूटती ही रहेंगी। मन उछलकूद करे, फिर भी निर्जरा होती रहेगी, परन्तु उस समय ‘आपको' उपयोग में रहना चाहिए कि क्या हो रहा है और क्या नहीं? खराब विचार आएँ तो भी हर्ज नहीं और अच्छे विचार आएँ तो भी हर्ज नहीं। क्योंकि जिसे दुकान खाली करनी है, उसे तो फिर, वह माल सड़ा हुआ हो, तो भी निकाल देना है और अच्छा हो तो भी निकाल देना है।
'कर्त्तापद छे आग्रही, अकर्त्तापद छे निराग्रही।' - नवनीत।
शुभ या अशुभ का अब आग्रह नहीं है। दान देने का भी आग्रह नहीं है। उदय में आया हो तो दान देंगे, तब उसकी निर्जरा हो जाएगी।
'अविचारपद वह शाश्वत ज्ञान।'
खद जब तक विचार में तन्मयाकार है, तब तक विचार पद कहलाता है और खुद विचार से अलग हुआ तो वह अविचारपद कहलाता है।
अंतिम दर्शन प्रश्नकर्ता : महाविदेह क्षेत्र में किस तरह जाया जा सकता है? पुण्य
से?
दादाश्री : ये हमारी आज्ञा का पालन करे, उससे इस जन्म में पुण्य