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________________ १२० आप्तवाणी-५ धर्म : अधर्म - वह एक कल्पना ये धर्म तो कैसे हैं? अधर्म को धक्का मारना, उसका नाम धर्म। सिर्फ धर्म को संग्रह करके रखना और अधर्म को धक्का मारना। किसीको धक्का मारना, क्या वह अच्छा कहलाता है? प्रश्नकर्ता : अधर्म को धर्म में बदल देना चाहिए। दादाश्री : ये धर्म और अधर्म, दोनों कल्पित ही हैं न? हमें कल्पना से बाहर निकलना है या कल्पित में ही भटकते रहना है? कल्पित तो अनंत जन्मों से भटका रहा है। धर्म अर्थात् किसीके लिए अच्छा करना, जीव मात्र को सुख देना। परन्तु सुख देनेवाला कौन है? तब कहे, 'इगोइज़म।' धर्म का फल भौतिक सुख-शांति मिलती है और अधर्म के फल स्वरूप भौतिक अशांति रहती है। परन्तु इस तरह धर्म करते हुए भी जानवर में जाना पड़ता है। जानवर में किस तरह जाते हैं? अणहक्क का इकट्ठा करने का विचार आए, वह पाशवता की निशानी है। उससे पशुयोनि बंधती है। हक़ का भोगो, हक़ की स्त्री, हक़ के बच्चे, हक़ के बंगले भोगो, वह मानवता कहलाती है और खुद के हक़ का दूसरों को दे दें, वह देवत्व कहलाता मुक्ति का साधन - शास्त्र या ज्ञानी? जो ज्ञान हितकारी नहीं होता, उसे कब तक सुनना चाहिए? 'ज्ञानी पुरुष' नहीं मिलें तब तक। जब तक इंदौरी गेहूँ नहीं मिलें, तब तक राशन के गेहूँ मिलें तो वही खाने पड़ेंगे न? परन्तु यदि 'ज्ञानी पुरुष' का संयोग मिल जाए तब तो फिर आप माँगना भूल जाओगे, आध्यात्म में जो माँगो वह मिलेगा, क्योंकि 'ज्ञानी पुरुष' मोक्षदाता पुरुष हैं। मोक्ष का दान देने आए हैं। खुद मुक्त हो चुके हैं। तरणतारण हो चुके हैं। खुद तर चुके हैं और अनेकों को तारने में समर्थ हैं। वहाँ सभी चीजें मिलती हैं। मुझे आप मिले हो, इसलिए बात कर रहा हूँ आपसे। सर्व जंजालों में से मुक्त होने का यह साधन है।
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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