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आप्तवाणी-५
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दादाश्री : सँभालना तो कुछ होता ही नहीं न? और सँभालने से कुछ सँभलता भी नहीं है न? सँभालना है खुद का स्वरूप!
जैसे भावों से बंध पड़ा हो, वैसे भाव से निर्जरा होगी। वह उसका स्वभाव ही है। बंध 'खुद की' हाज़िरी में पड़ा था। परन्तु यह निर्जरा गैरहाज़िरी में भी हो सकती है। हमें यदि संवर (शुद्ध उपयोगपूर्वक कर्म की निर्जरा जिससे नये कर्म चार्ज नहीं होते) हो फिर भी निर्जरा हो सकती है। लेकिन बंध 'स्वयं की' गैरहाज़िरी में नहीं पड़ता। अतः जिस भाव से बंध पड़े थे, वे खुद की हाज़िरी में पड़े थे। अब निर्जरा भी उसी भाव से होगी, उसे हमें देखते रहना है कि अरे! ऐसा बंध पड़ गया होगा, ऐसा लगता है।
प्रश्नकर्ता : जिस भाव से बंध पड़ते हैं, उसी भाव से बंध छूट सकते हैं क्या?
दादाश्री : उस भाव से नहीं। भाव से बंध नहीं छूटता है। उसी भाववाले परिणाम उत्पन्न होते हैं। जिन्हें क्रूर भाव का बंध पड़ा हुआ हो, तो वह परिणाम देते समय क्रूर दिखते हैं। परन्तु आज वे भाव हमारे खुद के नहीं हैं। यह तो निर्जरा हो रही है। उसे देखते रहना है कि क्या निर्जरा हो रही है! उस पर से पता चलता है कि क्या बंध पड़ा था, किस भाव से बंध पड़ा था, इस निर्जरा का रूटकॉज़ क्या था।
देव-देवियों का विचरण प्रश्नकर्ता : सात क्षेत्र, उनमें देव विचरण करते हैं क्या?
दादाश्री : देव तो जहाँ पर मनुष्य हों वहाँ पर जा सकते हैं। खास तौर पर तीर्थंकर हों, वहाँ पर देवी-देवता अधिक जाते हैं। अपनी इस भूमि पर कम आते हैं। अपनी भूमि का निरी गंदगीवाली, दुर्गंधवाली है, इसलिए यहाँ देवी-देवता नहीं पधारते। 'ज्ञानी' हों, वहाँ पर देवी-देवता आते हैं। ये विधि-पूजा वगैरह करवाते हैं तो वहाँ पर देवी-देवता जाते हैं, फिर भले ही वहाँ पर 'ज्ञान' न हो!