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नहीं है, तो व्याख्यान कहाँ से आएगा?
आप्तवाणी-५
प्रश्नकर्ता : आख्यान और व्याख्यान का मर्म क्या है?
दादाश्री : दो-चार लोगों के साथ बातें करें, वह आख्यान कहलाता है और पूरे समूह में बोलें तो व्याख्यान कहलाता है।
सावधान, अनुकूल में
प्रश्नकर्ता : बिना राग का प्रेम अनुभव में नहीं आया है, अर्थात् वह चीज़ सामान्य कल्पना से परे होती है ।
दादाश्री : इन दूसरे सभी लोगों के साथ का हिसाब द्वेषवाला होता है, उनका ‘समभाव से निकाल' करना पड़ता है । वे प्रतिकूल कषाय कहलाते हैं और यह रागवाला अनुकूल कषाय कहलाता है। अनुकूल को जब छोड़ना हो तब छोड़ा जा सकता है, परन्तु अनुकूल में बहुत जागृति रखनी पड़ती है। प्रतिकूल कड़वा लगता है, और कड़वा लगता है इसलिए तुरन्त ही जागृति आ जाती है। अनुकूल मीठा लगता है।
हमें स्वरूपज्ञान नहीं हुआ था, तब अनुकूल में हम बहुत सावधान रहते थे। प्रतिकूल में तो हमें खबर मिल जाएगी। अनुकूल से ही सब भटक गए हैं। किसीके घर में साँप घुस गया और उसने उसे देख लिया हो तो उसे हमें यह नहीं कहना पड़ता कि साँप घुस गया है, जगते रहना! यानी कि जागृत रहने जैसा यह जगत् है । ये जो भूलें करवाती है न, जो झोंका खिला देती है, वह सब अनुकूलता ही करवाती है ।
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बंध
निर्जरा
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निर्जरा होती है तब, कभी एकदम कड़वी तो कभी एकदम मीठी लगती है। उन दोनों को हमें कड़वे - मीठे से अलग रहकर 'पड़ोस' में रहकर ‘देखते' रहना है। कड़वा - मीठा, वह एक निरंतर का पौद्गलिक स्वभाव है।
प्रश्नकर्ता : शरीर में निर्जरा भले ही हो । सँभालने जैसा नहीं है
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