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आप्तवाणी-५
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दादाश्री : श्रद्धा दर्शन से नीचा पद है, परन्तु स्थिर है, डिगे नहीं ऐसा है। परन्तु लोग उसे निम्न भाषा में ले जाते हैं। महाराज साहब कहते हैं कि मुझ पर बस छह महीने श्रद्धा रखना । 'परन्तु साहब, मुझे आप पर श्रद्धा आती ही नहीं तो किस तरह रखूँ? मैं टिकिट चिपकाने जाता हूँ और चिपकती ही नहीं। आप ऐसा कुछ कहिए कि मुझे आप पर श्रद्धा आए । ' मैं क्या कहना चाहता हूँ कि श्रद्धा रखने की वस्तु नहीं है। श्रद्धा आनी ही चाहिए।
भीतर जो सूझ पड़ती है, वह दर्शन है। किसीको अधिक सूझ पड़ती है और किसीको नहीं भी पड़ती ! सूझ कुदरती देन है । वह अहंकारी वस्तु नहीं है। ‘नेचरल गिफ्ट' है । हर एक के पास अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार सूझ होती है। छोटे बच्चे को भी सूझ पड़ जाती है ! धर्म की दुकानें
प्रश्नकर्ता: सभी तरह-तरह के धर्म कहते हैं कि हमारा सच्चा है, हमारा सच्चा है, तो किसका सच्चा मानें?
दादाश्री : वीतरागों का । वीतराग की बात समझने जैसी है, वीतराग का कहा हुआ मानना। इन सभी दुकानों में सच्ची बात नहीं है। हर एक की अपनी बात है। हर एक की दृष्टि से सच्ची है। किसीकी गलत नहीं
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प्रश्नकर्ता : सभी बातों का सार यह है कि 'मैं' जाए तभी कुछ
होगा।
दादाश्री : जिस दुकान के मालिक नहीं हों, जो दुकान बिना मालिक की है, वहाँ जाकर बैठना । जहाँ पर 'मैं' जा चुका हो, जहाँ पर क्रोधमान-माया-लोभ नहीं दिखें, वहाँ पर बात सुनना, तब मोक्ष होगा, नहीं तो मोक्ष नहीं होगा।
व्याख्यान में तो सुननेवाला भी अलग और बोलनेवाला भी अलग। वह व्याख्यान कहलाता है, आख्यान नहीं । और मोक्षमार्ग में आख्यान ही