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आप्तवाणी-५
से रोंग बिलीफ़ हो गई है।
प्रश्नकर्ता : यह सच्चिदानंद स्वरूप साकार है या निराकार?
दादाश्री : वह रूपी नहीं है, अरूपी है यह बात समझने जैसी है। एकदम से इसे समझने की ज़रूरत नहीं है। अभी किस तरह प्राप्ति करें, वही समझना है।
निराकार कहा है तो अभी निराकार समझ लो, फिर आगे का समझ में आएगा। निराकार तो किसी हेतु से कहा गया है। कुछ हेतु सहित बातें ऐसी होती हैं कि वह हेतु पूरा होने के बाद में समझ में आती हैं। आत्मा निरंजन तो है ही, उसे कर्मों ने छुआ ही नहीं है। आज भी आपका आत्मा 'शुद्धात्मा' है। साफ-साफ दिखता है, परन्तु आप मान बैठे हो कि मुझसे निरे पाप हुए हैं, पुण्य हुए हैं। सभी ‘रोंग बिलीफ़' बैठी हुई हैं। 'ज्ञानी पुरुष' 'रोंग बिलीफ़' तोड़ देते हैं और 'राइट बिलीफ़' बैठा देते हैं। 'राइट बिलीफ़' बैठ जाए, तब 'मैं भगवान ही हूँ' ऐसा भान होता है।
प्रशस्त मोह माया अर्थात् अज्ञानता। माया जैसी कोई चीज़ नहीं है। माया 'रिलेटिव' है, विनाशी है और हम अविनाशी हैं। वह कब तक रहती है? जब तक हमें विनाशी चीज़ों पर मोह रहता है, तब तक माया खड़ी रहती है। आपको स्वरूप का मोह उत्पन्न हो जाएगा, 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा मोह उत्पन्न हो जाए, तब माया खत्म हो जाएगी।
प्रश्नकर्ता : कुछ समय बाद स्वरूप का मोह भी नहीं रहना चाहिए
न?
दादाश्री : स्वरूप का मोह तो अच्छा है। उसे मोह नहीं माना जाता। उसे अपनी भाषा में मोह कहते हैं। मोह का मतलब तो मूर्छा होता है।
और वास्तव में तो उसे आत्मा की रुचि नहीं कहा जाता। और देह का मोह कहलाता है। आत्मा की रमणता आई, तब पर-रमणता दूर हो जाती है, उसका संसार टला!