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आप्तवाणी-५
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यह तो ऐसा है न कि परमात्मा अभेद स्वरूप से है। अभेद स्वरूप का विरह लगे, तो संसार तो आपका बहुत ही सुंदर चलेगा। यह तो दख़ल करता है बल्कि। संसार अपने आप चले वैसी चीज़ है। जैसा यह भोजन करने के बाद अंदर फिर सहज चलता है, उससे भी अधिक बाहर सहज चले वैसा है! कुदरत का नियम ऐसा है कि भीतर पाचक-रसों की मात्रा आज ऐसे डालती है कि पूरी ज़िन्दगी उसकी मात्रा ठीक रहे और अभागा इस तरह डाल देता है कि आज डाले न तो दूसरे साल अकाल पड़ जाए!!
प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानी पुरुष' के विरह में जो वेदना उत्पन्न होती है उसे कैसी वेदना कहते हैं?
दादाश्री : वह वेदना तो ओहोहो! भीतर 'इलेक्ट्रिसिटी' उत्पन्न होती है और उससे स्वरूप तेजवान होता जाता है। वह तो बहुत उत्तम वस्तु कही जाती है। विरह की वेदना का तो महाभाग्य से ही उदय होता है। बहुत समय के परिचय से उसे वह होता है। जिसे मोक्ष में जाना हो, उसे वह वेदना जगती है! उसके लिए आपको बहुत जल्दबाज़ी करने जैसा नहीं है। इतने सारे जन्म बिगाड़े, अब एक-दो जन्मों के लिए क्या नुकसान होनेवाला है? इतने जन्म भटकते रहे, उसकी थकान नहीं लगी और अब दो जन्मों के लिए थकान लगेगी?
सच्चिदानंद स्वरूप खुद का स्वरूप जो है, वह सच्चिदानंद है। सत्-चित्-आनंद। यह असत् चित्त हो गया है। वह सुख भी कल्पित है और दुःख भी कल्पित है। कल्पित है फिर भी असर सच्चे जैसा होता है! सच्चिदानंद, वह मूल स्वरूप है हम सबका।
प्रश्नकर्ता : सच्चिदानंद स्वरूप हर एक के अंदर है? दादाश्री : हाँ, जीव मात्र के अंदर है और वही परमात्मा है!
सच्चिदानंद स्वरूप के दो भाव हैं। एक स्वभाव है और दूसरा विभाव है। विभाव अर्थात् विशेष भाव, विरुद्ध भाव नहीं। यह तो संयोगों के दबाव