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________________ आप्तवाणी-५ दुर्जन लोग दुरुपयोग करेंगे, जगत् उल्टे रास्ते चलेगा, इसलिए सच्ची बात नहीं कही। ‘व्यवस्थित' के ज्ञान से आपको संकल्प - विकल्प नहीं होते । इस जगत् में कर्त्तापन मिटे, तब 'व्यवस्थित' समझ में आएगा । कर्त्तापन नहीं मिटे, तब तक ‘व्यवस्थित' समझ में नहीं आता । खुद अकर्त्ता हो जाए, तब 'इसका कर्त्ता कौन है' वह समझ में आएगा। खुद कर्त्ता नहीं है, फिर भी कर्त्ता मानता है, तब यह समझ में कैसे आएगा? ९४ प्रश्नकर्ता : खुद का कर्तृत्व तो छोड़ता नहीं है । दादाश्री : हाँ। इसलिए दूसरे का कर्त्तापन होने ही नहीं देता न ? वर्ना जगत् है तो व्यवस्थित, परन्तु कर्त्तापन के कारण कल्पना उत्पन्न होती ही है। अकर्त्ता हो गया, तब से ही हल आ गया। तब तक क्रोध - मान-लोभ जाते नहीं हैं, भय जाता नहीं । अशुभ के कर्त्तापन में से छूटकर शुभ का कर्त्ता बना, फिर भी कर्त्ता है, इसलिए संकल्प - विकल्प हुए बगैर रहता ही नहीं है। और यह 'व्यवस्थित' समझ में नहीं आता, इसलिए 'मेरा अब क्या होगा' ऐसा विचार आता है। माया विज्ञान द्वारा मुक्ति प्रश्नकर्ता : मोक्ष में जाने की भावना है, परन्तु उस रास्ते में खामी है तो क्या करना चाहिए? दादाश्री : किस चीज़ की खामी है? प्रश्नकर्ता : कर्म हैं न? कर्म तो करते ही रहते हैं । दादाश्री : कर्म किससे बंधते हैं, ऐसा हमें जानना चाहिए न? प्रश्नकर्ता : अशुभ भाव से और शुभ भाव से । दादाश्री : शुभ भाव भी न करे और अशुभ भाव भी न करे, उसे कर्म नहीं बंधते। शुद्ध भाव हों, उसे कर्म नहीं बंधते । अशुभ भाव से पाप बंधते हैं और शुभ भाव से पुण्य बंधते हैं । पुण्य का फल मीठा आता है और पाप का फल कड़वा आता है । गालियाँ दे, तब मुँह कड़वा हो जाता है न?
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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