________________
आप्तवाणी-५
९५
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : और माला पहनाएँ उस घड़ी? मीठा लगता है। शुभ का फल मीठा और अशुभ का फल कड़वा और शुद्ध का फल मोक्ष !
प्रश्नकर्ता : जीव मुक्ति कब पाता है ?
दादाश्री : शुद्ध हो जाए तो मुक्ति पाता है। शुद्धता को कुछ भी स्पर्श ही नहीं करता। शुभ को स्पर्श करता है। यह शुभ का मार्ग ही नहीं है। यह शुद्ध का मार्ग है। यानी कि निर्लेप मार्ग है।
यह 'विज्ञान' है। 'विज्ञान' अर्थात् सब प्रकार से मुक्त करवा देता है। यदि शुद्ध हो गया, तो कुछ भी स्पर्श नहीं करेगा, और शुभ है तो अशुभ स्पर्श करेगा। अर्थात् शुभवाले को शुभ रास्ता लेना पड़ेगा। अर्थात् शुभमार्गी जो कुछ करते हैं, वह ठीक है, परन्तु यह तो शुद्ध का मार्ग है। सभी शुद्ध उपयोगी, इसलिए और कोई झंझट ही नहीं ।
यह मार्ग अलग ही प्रकार का है। विज्ञान है यह । विज्ञान अर्थात् जिसे जानने से ही मुक्त हो जाते हैं। करना कुछ भी नहीं है । जानने से ही मुक्ति ! यह बाहर है, वह ज्ञान है। ज्ञान अर्थात् जो क्रियाकारी नहीं होता और यह विज्ञान क्रियाकारी होता है । यह 'विज्ञान' प्राप्त होने के बाद अंदर आपमें क्रिया करता ही रहता है। शुद्ध क्रिया करता है । अशुद्धता उसे स्पर्श ही नहीं करती। यह विज्ञान अलग ही प्रकार का है । 'अक्रमविज्ञान' है !!
प्रश्नकर्ता : जिसे निष्काम कर्म कहा है, वह यह है ?
दादाश्री : निष्कामकर्म अलग ही प्रकार का है । निष्काम कर्म तो एक प्रकार का रास्ता है । उसमें तो कर्त्तापद चाहिए। खुद कर्त्ता हो, तो निष्कामकर्म होता है। यहाँ कर्त्तापद ही नहीं है । यह तो शुद्ध पद है । जहाँ कर्त्तापद है वहाँ शुद्धपद नहीं है, शुभ पद है।
प्रश्नकर्ता : शुद्धता लाने के लिए क्या करना चाहिए?
दादाश्री : करने जाओगे तो कर्म बँधेंगे। 'यहाँ पर' कहना कि हमें