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________________ आप्तवाणी-५ ९३ भी नहीं है, विकल्प भी नहीं है और कुछ भी नहीं है। विकल्प तो 'मैं चंदूलाल हूँ' तब तक विकल्प ही हैं, फिर आचार्य महाराज हों या चाहे कोई हो। 'मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसा भान रहे तो निर्विकल्प कहलाता है। अब निर्विकल्प हो गए तो निर्विकल्प दशा रहती क्यों नहीं है? तब कहें कि पिछला उधार, पिछली कलमों का जो भंग किया हैं, उन कलमों के दावे चलेंगे। ___ 'शुद्धात्मा' होने के बाद संकल्प और विकल्प दोनों गए। अब मन में से निकलते हैं, वे सभी ज्ञेय हैं। अब जब तक खुद विकल्पी है, तब तक वे ज्ञेय दिखते नहीं हैं। वह तो ऐसा कहता है कि, 'मुझे ही विचार आया है।' वर्ना स्वयं कल्प स्वरूप है। जैसा चिंतन करे, वैसा हो जाता है। स्वयं निर्विकल्प क्यों कहलाता है? तब कहें कि अज्ञानता में विकल्प किया था इसलिए 'ज्ञान' के बाद निर्विकल्प कहलाता है। वापिस लौटे इसलिए निर्विकल्प कहा गया। एक मात्र स्वरूप की तरफ चिंतन मुड़ता नहीं है। वह मदिरा तो 'ज्ञानी पुरुष' उतारें, उसके बाद ही उसका कुछ हो सकता है। शुभ के बड़े-बड़े विकल्प किए हों, तो वे भी फल देते हैं। किसीको मार डालने के भाव किए हों, तो वैसा फल आता है और दान देने के भाव किए हो तो वैसा फल आता है। प्रश्नकर्ता : आपने कहा है न कि जगत् 'व्यवस्थित' है, तो फिर उसे बदलने का विकल्प क्यों आता है? दादाश्री : ये विकल्प तो पहले विकल्प किए हुए हैं, उनके फलस्वरूप आते हैं। बीज पड़े हों, तो उगेंगे ही न? फिर वापिस आप उसे उखाड़ नहीं दो, उगने दो तो फिर से उनके बीज डलते हैं। निर्विकल्प होने के बाद उसे उखाड़ देना है। 'समभाव से निकाल करने लगा, उसे ही 'उखाड़ने लगे', ऐसा कहा जाता है। जगत् तो बिल्कुल 'व्यवस्थित' है। भगवान ने क्यों नहीं बताया?
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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