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________________ ८६ आप्तवाणी-५ प्रश्नकर्ता : यानी सुविधा है, उससे अधिक सुविधा चाहिए? दादाश्री : सुविधा को असुविधा बना दिया है इन लोगों ने। 'अबव नॉर्मल' हुआ कि असुविधा हो गई? प्रश्नकर्ता : रक्षण करने के लिए यदि मनुष्य बुद्धि का उपयोग करे तो वह नॉर्मल कहलाएगा न? ये एटम बम बनाते हैं, वह रक्षण के लिए ही न? दादाश्री : वह रक्षण नहीं कहलाता। सामनेवाला व्यक्ति भी बनाए तो क्या होगा? फिर कितना अधिक भय रहेगा? यह तो सामनेवाले मनुष्य को दबाने के लिए किया है। ऐसा रक्षण करने की ज़रूरत नहीं है। कुदरत इसका रक्षण कर ही रही है। बिना काम के ऐसे तूफ़ान करने की ज़रूरत ही नहीं है। ऐसे साधन ही नहीं बनाने चाहिए। मुबंई के तालाब में ज़हर डाल दें तो सभी लोग मर जाएँगे, वह कुछ बुद्धि नहीं कहलाती! प्रश्नकर्ता : वह दुर्बुद्धि कहलाती है? दादाश्री : वह दुर्बुद्धि भी नहीं कहलाती। वह तो भयंकर खानाखराबी की कहा जाएगा। प्रश्नकर्ता : मुझे 'मिकेनिकल' बुद्धि की 'लिमिट' जाननी है। 'इनर' बुद्धि की शुरूआत और उसकी ‘लिमिट' जाननी है। दादाश्री : जानकर तू क्या करेगा? प्रश्नकर्ता : मुझमें वह कितनी है, वह मुझे जानना है। दादाश्री : यह तेरी सारी 'आउटर' (बाह्य) बुद्धि ही है। 'इनर' (आंतरिक) बुद्धि होती तो इस तरफ जल्दी झुक जाता, मेरे साथ तुरन्त ही 'एडजस्ट' हो जाता। तू खुद ही कहता कि "मेरी 'सेफसाइड' कर दीजिए। मेरी स्वतंत्रता के लिए कुछ कर दीजिए। यह परवशता मुझे पसंद नहीं है।" परवशता यह निरी परवशता! 'निरंतर परवशता'! जानवर परवश और मनुष्य
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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