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________________ आप्तवाणी-५ भी परवश। वह कैसे पुसाएगा? सिर दु:खे तो भी उपाधि। पैर दुखते हों, आँखें दुखती हों, दांत दुखता हो, तब भी उपाधि। ऐसे भयंकर अशाता में कैसे जीएँ? यह परवशता थोड़ी बहुत समझ में आती है तुझे? प्रश्नकर्ता : हाँ। दादाश्री : अनुभव में आई हुई है? प्रश्नकर्ता : हाँ। दादाश्री : तुझे वह पसंद है? प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : पसंद नहीं हो तो ऐसा क्यों नहीं पूछता कि परवशता किस तरह जाएगी? प्रश्नकर्ता : वह तो खुद मनुष्य अपने आप उसका ‘सोल्युशन' निकाल सकता है। दादाश्री : कुछ हद तक 'सोल्युशन' निकाल सकता है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है वैसे-वैसे परवशता बढ़ती है, और अंत में मरते समय तो परवशता की सीमा नहीं रहती। बुढ़ापे में दांत दुःख देते है, शरीर दुःख देता है, बच्चे दुःख देते हैं, भाई दुःख देते हैं। बच्चे कहते हैं, 'आप बैठे रहिए अब, इतना बोलते मत रहो!' कितनी अधिक परवशता? प्रश्नकर्ता : परवशता और चिंता, दोनों साथ-साथ नहीं जाते? दादाश्री : चिंता, तो 'अबव नॉर्मल' 'इगोइज़म' है और परवशता तो लाचारी है। 'अबव नॉर्मल' 'इगोइज़म' हो तो चिंता होती है, नहीं तो नहीं होती। इस घर में रात को नींद किसे नहीं आती होगी? जिसे 'इगोइज़म' अधिक है उसे।
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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