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आप्तवाणी-५
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प्रश्नकर्ता : परन्तु दादा, इस तरह हमारा दुःख आपको सौंपा जा सकता है?
दादाश्री : हाँ, हाँ। दादा को ही सबकुछ दे देना और कहना कि ‘जा, दादा के पास। यहाँ क्या है ? इधर क्या है? सब दे दिया दादा को । अब इधर क्यों आया?'
प्रश्नकर्ता : सुख भी दे देना है?
दादाश्री : नहीं, सुख नहीं । सुख आपके पास रखना है। मुझे सुख का शौक नहीं है, इसलिए आपके पास रखना । आपसे दुःख यदि सहन नहीं हो तो मेरे पास भेज देना । दो- पाँच बार दुःख का अपमान करो कि ‘इधर क्यों आया है? दादा को दे दिया है।' तब फिर वह खड़ा नहीं रहेगा | इस पुद्गल का गुण कैसा है कि अपमान हो तो खड़ा नहीं रहता।
जो 'दादा भगवान' हैं, वे अचिंत्य चिंतामणि हैं । जैसा चिंतन करे वैसा हो जाता है। मुश्किल में उनका चिंतन करो तो मुश्किलें सब चली जाती हैं। जैसा चिंतन वैसा फल देते हैं । फिर हमें किसलिए घबराने की ज़रूरत है?
सद्वर्तन की नापसंदगी
प्रश्नकर्ता: कईबार कोई अच्छा व्यवहार करे फिर भी हमें पसंद नहीं आता।
दादाश्री : पसंद आने का हिसाब चुक गया, फिर पसंद नहीं आता। पसंद हो तो सबकुछ अच्छा लगता है और नहीं पसंद हो तो सबकुछ बुरा लगता है। हमें नापसंद पर द्वेष नहीं करना है।
प्रश्नकर्ता : राग-द्वेष नहीं होते, परन्तु एक बार अभाव हो गया फिर किसी भी तरह से भाव होता ही नहीं !
दादाश्री : तू ऐसा रंग देता रहे कि बहुत अच्छे मनुष्य है, फिर भी नहीं चढ़ेगा। हिसाब चुक गया । यह घर बिक जाने के बाद फिर उस पर