SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ भाव रहता है? आप्तवाणी-५ प्रश्नकर्ता : ना । दादाश्री : और बिकने से पहले? कुछ ऊँचा - नीचा हुआ हो फिर भी मन में रहा करता है । हिसाब चुक गया कि चलता बना। I संसारानुगामी बुद्धि मत में पड़ा हुआ हो उसके संस्कार एकदम से जाते नहीं हैं। वे सभी संस्कार सामने आएँगे, इसलिए पहले से आपको सावधान कर देता हूँ। यह अलौकिक विज्ञान है। इसकी सभी बातें अलौकिक हैं। यहाँ लौकिक है ही नहीं! लौकिक अर्थात् मताग्रही । वह फिर दिगंबरी हो या श्वेतांबरी हो, स्थानकवासी हो या देरावासी हो, तेरापंथी-मेरापंथी, अलगअलग पंथवाले, वैष्णव धर्म हो, शिवधर्म हो या मुस्लिम धर्म हो। सभी लौकिक धर्म कहलाते हैं। वे कुछ गलत नहीं हैं। अच्छा किया हो तो पुण्य बँधता है और उससे बाद में फिर घोड़ागाड़ी, मोटर, बंगला सबकुछ मिलता है और 'इस' अलौकिक धर्म से मोक्ष मिलता है। प्रश्नकर्ता : आपकी छाया में आने के बाद यदि बुद्धि छल करे तो उसके जैसा अभागा जीव कोई नहीं है। दादाश्री : नहीं, फिर भी छलती है । बहुत होशियार को भी छलती है। इसलिए आप पहचानकर रखो । बुद्धि कोई भी सलाह देने आए तब उसे कहना कि ‘बहन, तू तेरे पीहर जा । अब मुझे तुझसे काम नहीं है । तेरी सलाह भी नहीं सुननी है ।' मन की सलाह सुनने में हर्ज नहीं है, परन्तु सिर्फ बुद्धि की ही सलाह नहीं सुननी चाहिए। बुद्धि संसार से बाहर नहीं निकलने देती । मोक्ष में नहीं जाने देती, वह बुद्धि है ! बुद्धि फायदा-नुकसान दिखाती है। ऐसा हो जाएगा, वैसा हो जाएगा। फिर ऊपर से वह मताग्रहवाली है। अभिग्रह (नियम पालन करने का एक प्रकार का आग्रह ) किसका ? मत का । आत्मा का अभिग्रह करने के बदले मत का अभिग्रह किया । बोलो, अब वह कब और कौन-सी
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy