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आप्तवाणी-५
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मिला हो, तब भी उतनी स्वसत्ता प्राप्त होती है और मतिज्ञान भी स्वसत्ता का आधार है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, वे सब भी स्वसत्ता के आधार हैं।
पैसे कमाए, उसे जगत् पूरण कहता है और नुकसान जाए या खर्च हो जाए, तब गलन हो गया, कहते हैं। वास्तव में कमाया या खर्च किया दोनों गलन हैं, और फिर 'व्यवस्थित' के अधीन है। अब यह जगत् को किस तरह समझ में आए? यदि 'व्यवस्थित' की सत्ता समझ जाए तो खुद बिल्कुल मुक्त हो जाए। फिर खुद के स्वरूप में ही रह सकेगा। इतनी बात आप जान लो, तब फिर आपको परेशानी नहीं रहेगी न! आप यह बात भूलोगे नहीं, और जगत् के लोगों को सिखाते रहें, फिर भी भूल जाएँगे। क्योंकि वे कषाय सहित है। कषाय सहितवाले के काबू में कुछ भी नहीं रहता। आपको 'ज्ञान' देते हैं फिर आपको किताब पढ़ने को कब कहा है? यह 'ज्ञान' तो मौखिक दिया हुआ है। किताब या शास्त्र कुछ भी नहीं पढ़ना है, फिर भी प्रमाण में वही का वही ज्ञान आपके पास रहता है! किताब का याद नहीं रहता, मौखिक दिया हुआ याद रहेगा। क्योंकि उसमें 'ज्ञानी पुरुष' का वचनबल होता है। पुस्तक में पढ़ने जाएँ तो वह जड़ हो जाएगा फिर से!
इसलिए जगत् पूरा गलन स्वरूप में है और वह भी फिर 'व्यवस्थित' भाव से है। ये मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार सबकुछ 'व्यवस्थित' के ताबे में है। उसके ताबे में हो फिर आपको उसका रक्षण करने की ज़रूरत नहीं है न? आपको तो कुछ भी करने को नहीं रहा न? सिर्फ 'देखते' रहना है कि 'व्यवस्थित' क्या कर रहा है, वह! हमारी यह 'व्यवस्थित' की खोज बहुत एक्ज़ेक्ट है। 'पोइन्ट टु पोइन्ट' तक एक्ज़ेक्ट है। इसीलिए तो हम इसे गलन कहते हैं, तो आपको आपके 'ज्ञान' में रहने के लिए जैसे है वैसे, ये सब स्पष्टीकरण देते हैं। इसीलिए तो यह 'अक्रम विज्ञान' प्रकट करना पड़ा है!
जिसे लोग उदयकर्म कहते हैं, वह सारा गलन है। उसमें पूरण कुछ भी नहीं है। ये पाँचों इन्द्रियाँ उदय के अधीन है। ये पाँचों इन्द्रियाँ ही उदय के अधीन हैं, वहाँ फिर इन्द्रियों के कर्म तो उदय के अधीन ही होंगे न?