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________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 67 देखे। उसी समय प्रभु कुन्थुनाथ जी अहमिन्द्र की आयुपूर्ण करके माता के गर्भ में अवतरित हुए। तब देवों ने प्रथम गर्भकल्याणक की पूजा की। नव मास व्यतीत होने पर महारानी ने वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन आग्नेय योग में पुत्र रत्न को जन्म दिया। इन्द्रों ने आकर प्रभु का जन्माभिषेक सुमेरु पर्वत पर किया तथा बालक का नामकरण कुन्थु किया। श्री कुन्थुनाथ भगवान की देह की कांति सुवर्ण के समान तथा ऊँचाई पैंतीस धनुष प्रमाण की थी। उनकी आयु पचानवे हजार वर्ष की थी और दीक्षा पर्याय तेईस हजार साढ़े सात सौ वर्ष की थी। तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ जी तथा कुन्थुनाथ जी के निर्वाण का अंतरकाल आधे पल्योपम का था। कुमार कुंथु तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष कुमार काल व्यतीत करने के पश्चात् सिंहासनारूढ़ हुए और उनका विवाह हुआ। इतना ही समय और व्यतीत होने पर वे चक्रवर्ती सम्राट बने। तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष तक चक्र सुखों व राज्य का भोग करने के पश्चात् एक दिन उन्हें अपने पूर्व भव का स्मरण हुआ, जिससे उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया। अतः वे अपने पुत्र को राज्य सौंपकर दीक्षा के लिए उद्यत हुए। तब इन्द्रों ने आकर उनका दीक्षा कल्याणक किया। उसके पश्चात् वे विजया नामकी पालकी में बैठकर सहेतुक वन गए। वहाँ तेला का नियम लेकर वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन कृतिका नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ सायंकाल के समय दीक्षा धारण की। उसी समय उन्हें मनःपर्यय ज्ञान हो गया। केवलज्ञान : दीक्षा के पश्चात् तपस्या करते हुए श्रीकुंथुनाथ भगवान सोलह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में विचरण करते रहे । तब एक दिन वे सहेतुक वन में पहुँचे, वहाँ बेला का नियम लेकर तिलक वृक्ष के नीचे ध्यानारुढ़ हुए। वहीं चैत्र शुक्ला तृतीया के दिन सायंकाल के समय कृतिका नक्षत्र में उन्हें केवल ज्ञान हो गया। देवों ने आकर चतुर्थ कल्याणक की पूजा की। धर्म-परिवार : तीर्थंकर कुंथुनाथजी के धर्म-परिवार में स्वयंभू आदि पैंतीस गणधर थे। सात सौ पूर्वधारी मुनि थे, तैंतालीस हजार एक सौ पचास शिक्षक थे, दो हजार पांच सौ अवधिज्ञानी थे, तीन हजार दो सौ केवल ज्ञानी थे, पाँच हजार एक सौ विक्रियाऋद्धि धारी थे, तीन हजार तीन सौ मनः पर्ययज्ञानी थे, दो हजार पचास वादी थे। इस प्रकार सब मिलाकर साठ हजार मुनिराज उनके साथ थे। भाविता आदि साठ हजार तीन सौ पचास आर्यिकाएँ थीं, तीन लाख श्राविकाएँ थी, दो लाख श्रावक थे, असंख्यात देव-देवियाँ थीं और संख्यात तिर्यंच थे। भगवन इन बारह प्रकार की सभाओं को उपदेश देते हुए विहार करते थे। मोक्ष : अनेक देशों में विहार करते प्रभु धर्म का उद्योत करते रहे। जब उनकी आयु का एक माह शेष रह गया, तब वे सम्मेद शिखर पहुँचे। वहाँ भगवान
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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