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________________ 68 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन कुन्थुनाथजी ने एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण किया और वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन रात्रि के पूर्वभाग में कृतिका नक्षत्र का उदय रहते हुए समस्त कर्मों का नाश करके मोक्ष प्राप्त किया। 18. श्री अरनाथ जी : इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कुरुजांगल देश था। उसके हस्तिनापुर नगर में सोमवंशी काश्यपगौत्री राजा सुदर्शन राज्य करता था। उनकी मित्रसेना नाम की पटरानी थी। एक बार फाल्गुन कृष्ण तृतीया के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रि के पिछले प्रहर में महारानी मित्रसेना ने चौदह स्वप्न देखे। उसी समय तीर्थंकर देव का माता के गर्भ में अवतरण हुआ। नव मास पूर्ण होने पर मिगसर शुक्ल चतुर्दशी के दिन पुष्य नक्षत्र में प्रभु का जन्म हुआ। तब देवों ने प्रभु का सुमेरु पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक किया। और अरनाथ नामकरण किया। 88 श्री अरनाथ भगवान के देह की कांति सुवर्ण के सामन थी तथा ऊँचाई तीस धनुष की थी। उनकी आयु चौरासी हजार वर्ष की थी। उनकी व्रत पर्याय इक्कीस हजार वर्ष की थी। तीर्थंकर श्री कुंथुनाथ जी और अरनाथ जी के निर्वाण का अन्तरकाल एक हजार करोड़ वर्ष कम पल्यापम के चौथे भाग का था। इक्कीस हजार वर्ष कुमार अवस्था में व्यतीत करने के पश्चात अरनाथ जी को मण्डलेश्वर राजा बनाया गया। बयालीस हजार वर्ष की आयु में चक्रवर्ती सम्राट बन गये। तिरेसठ हजार वर्ष की आयु तक उन्होंने सुखपूर्वक शासन किया। एक दिन शरद ऋतु के मेघों के अकस्मात विलय हो जाने के दृश्य को देखकर उन्हें आत्मज्ञान हुआ। तब अपने पुत्र अरविन्द कुमार को राज्य सौंपकर प्रभु वैजयन्ती नामकी पालकी में बैठकर सहेतुक वन चले गए। वहाँ तेले का नियम लेकर उन्होंने मिगसर शुक्ला दशमी के दिन रेवती नक्षत्र में संध्या के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेते ही वे चार ज्ञान के धारी हो गये। केवलज्ञान : मुनिराज अरनाथजी सोलह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में विचरण करते रहे। तब एक दिन सहेतुक वन में कार्तिक शुक्ल द्वादशी के दिन रेवती नक्षत्र में सायंकाल के समय आम्रवृक्ष के नीचे तेले का नियम लेकर विराजमान हुए। उसी समय चार घातिया कर्म नष्ट करके वे अरिहन्त पद को प्राप्त हुए। अर्थात् उन्हें केवलज्ञान हो गया और देवों ने चतुर्थ कल्याणक की पूजा की।" धर्म-परिवार : तीर्थंकर श्री अरनाथजी ने केवलज्ञान के पश्चात धर्म-शासन की स्थापना की। उस धर्म परिवार में कुम्भार्य आदि तीस गणधर थे, छह सौ दस ग्यारह अंग चतुर्दश पूर्वधारी थे, पैंतीस हजार आठ सौ पैंतीस सूक्ष्म बुद्धि को धारण करने वाले शिक्षक थे। अट्ठाइस सौ अवधिज्ञानी थे, इतने ही केवलज्ञानी थे, तैंतालीस सौ विक्रियाऋद्धिधारक थे, बीस सौ पचपन मनःपर्यय ज्ञानी थे। सोलह सौ वादी थे। इस
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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