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________________ 66 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन कन्या, गज और अश्व विजयार्ध पर्वत पर प्राप्त हुए थे। नौ निधियाँ सागर और नदी के समागम पर इन्द्रों के द्वारा लाकर दी गई थीं। इस प्रकार पच्चीस हजार वर्ष तक चक्रवर्ती साम्राज्य का भोग करते हुए एक दिन अलंकार गृह में चक्रवर्ती सम्राट शान्तिनाथ जी को वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने अपने नारायण नामक पुत्र को राज्य सौंप दिया। तब लोकान्तिक देवों ने आकर दीक्षा अभिषेक किया। तब सर्वार्थसिद्धि नामकी पालकी में बैठकर सहस्राम्रवन में जाकर सुन्दर शिलातल पर उत्तर की ओर मुख करके पर्यंकासन में विराजमान हो गए। ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन शाम के वक्त भरणी नक्षत्र में बेला का नियम लेकर उन्होंने सिद्ध भगवान को नमस्कार करके समस्त वस्त्राभूषण छोड़कर केशों का पंचमुष्ठि लोच करके सामायिक चारित्र धारण किया। तभी उन्हें मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया। भगवान शान्तिनाथ जी ने एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण की। केवल ज्ञान : भगवान श्री शान्तिनाथ जी सोलह वर्ष तक तपश्चरण करते हुए समस्त पृथ्वी पर छद्मस्थ अवस्था में विचरण करते रहे। चक्रायुध आदि अनेक मुनियों के साथ एक बार सहस्राम्रवन में गए। वहाँ नन्द्यावर्त वृक्ष के नीचे तेला (तीन उपवास) का नियम लेकर पूर्व की ओर मुख करके विराजमान हो गए। पौप शुक्ला दशमी के दिन प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त किया।" धर्म परिवार : तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ जी के केवलज्ञान के पश्चात् उनके धर्मपरिवार में चक्रायुध आदि छत्तीस गणधर थे। आठ सौ पूर्वधारी थे, इकतालीस हजार आठ सौ शिक्षक थे, तीन हजार अवधिज्ञानी थे, चार हजार केवलज्ञानी थे, छह हजार विक्रिया ऋद्धिधारी थे। चार हजार मनः पर्ययज्ञानी थे और दो हजार चार सौ वादी थे। इस प्रकार कुल मिलाकर बासठ हजार मुनि थे। हरिषेणा आदि साठ हजार तीन सौ आर्यिकाएँ थीं। दो लाख श्रावक तथा चार लाख श्राविकाएं थीं। असंख्यात देव-देवी तथा संख्यात तिर्यंच उनकी स्तुति करते थे। इस प्रकार वे बारह गणों को समीचीन धर्म का उपदेश देते थे। निर्वाण : हजारों वर्षों तक धर्म का उद्योत करने के पश्चात् जब आयु का एक माह शेष रहा, तो वे सम्मेदशिखर पर चले गए। वहाँ भगवान शान्तिनाथ जी अचल योग से विराजमान हो गए। ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन रात्रि के पूर्व भाग में भरणी नक्षत्र में प्रभु सभी योगों का निरोध करके शुक्ल ध्यान के द्वारा मोक्षगामी हुए और सिद्ध पद को प्राप्त किया। तब देवों ने अन्तिम संस्कार निर्वाण कल्याणक की पूजा की। 17. श्री कुन्थुनाथ जी : जम्बुद्वीप के भरत क्षेत्र के कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगर था। वहाँ कौरववंशी काश्यपगोत्री महाराज सूरसेन राज्य करते थे। उनकी श्रीकान्ता नामक पटरानी थी। उन्होंने श्रावण कृष्ण दशमी के दिन रात्री के पिछले भाग में चौदह स्वप्न
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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