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________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता* 61 शतभिषा नक्षत्र में रानी जायावती ने चौदह स्वप्न देखे, तभी वासुपूज्य जी ने माता के गर्भ में प्रवेश किया। यथा समय नौवें फाल्गुन माह में कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन वारुण योग में भगवान वासुपूज्य जी का जन्म हुआ। वासुपूज्य जी के शरीर की कांति लाल थी, आयु बहत्तर लाख वर्ष थी और काया सत्तर धनुष प्रमाण ऊँची थी। उनकी दीक्षा पर्याय चौवन लाख वर्ष थी। श्रेयांसनाथ जी और वासुपूज्यजी के निर्वाण का अन्तरकाल चौवन सागरोपम का था। वासुपूज्य जी के कुमार काल के आठारह लाख वर्ष बीत जाने पर उन्हें संसार से विरक्ति होने लगी। अतः महाराज वासुपूज्य जी देवों द्वारा लायी हुई पालकी में बैठकर मनोहर उद्यान गये। वहाँ दो उपवास का नियम लेकर फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में सामायिक चारित्र ग्रहण कर लिया इसके साथ ही उन्हें मनःपर्यय ज्ञान हो गया। उनके साथ छह सौ छिहत्तर राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण की। ___ केवल ज्ञान : दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् वासुपूज्य स्वामी एक वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में विचरण करते रहे। तब एक दिन विचरण करते हुए अपने दीक्षावन में पहुँचे और वहाँ कदम्ब के वृक्ष के नीचे बैठकर उपवास का नियम लिया और माघ शुक्ला द्वितीया के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में चार घातिया कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान प्राप्त किया। धर्म परिवार : वासुपूज्य भगवान के धर्म आदि 66 गणधर थे। उनके 1200 पूर्वधारी थे, 39200 शिक्षक थे, 5400 अवधिज्ञानी थे, 6000 केवलज्ञानी थे, 10 हजार विक्रियाऋद्धिधारी थे, 6 हजार मनःपर्ययज्ञानी थे और 4200 वादी थे। इस प्रकार सब मिलकर 72 हजार मुनियों से शोभित थे। सेना आदि 1 लाख 6 हजार आर्यिकाएँ उनकी आज्ञानुवर्तिनी थी। 2 लाख श्रावक तथा 4 लाख श्राविकाएँ उनके अनुयायी थे। असंख्यात देव-देवियों तथा संख्यात तिर्यंचों से वे स्तुत्य थे। निर्वाण : भगवान वासुपूज्य जी समस्त आर्यक्षेत्र में विचरण करते रहे। फिर एक हजार वर्ष तक चम्पानगरी में आकर रहे । जब आयु का एक माह शेष रह गया, तो योग निरोध करके रजतमालिका नामक नदी के किनारे मन्दरगिरि के शिखर पर मनोहर उद्यान में पर्यंकासन पर विराजमान हुए तथा भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी को सायंकाल में विशाखा नक्षत्र में 94 मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए। 13. विमलनाथ जी : भरत क्षेत्र के काम्पिल्य नगर में भगवान ऋषभदेव के वंशज कृतवर्मा नाम का राजा राज्य करता था। जयश्यामा उनकी पटरानी थी। ज्येष्ठकष्ण दशमी के दिन रात्रि के पिछले भाग में उत्तराभाद्रपद नक्षत्र के रहते जयश्यामा देवी ने चौदह स्वप्न देखे। उसी समय मुख में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा। तभी भगवान ने माता के गर्भ
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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