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________________ 50 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन धन्धा नहीं करते थे। मांस और मदिरा छूना तक पाप समझते थे। संत मूसा और दनियाल अहिंसावादी थे। उनके प्रभाव से आस-पास के देशों में भी अहिंसा का बहुत प्रचार था। बेबीलोनिया वासी तथा यहूदियों की भाँति हित्ती जाति के लोगों पर भी भारतीय धर्मों का प्रभाव पड़ा था। इनका मुख्य देवता 'ऋतुदेव' (Weather-God) कहा गया है। उसका वाहन बैल था जिसे 'तेशुब' (Teshub) कहा जाता था, जो तित्थयर उसभ का अपभ्रंश जान पड़ता है। मिश्रवासियों की धार्मिक मान्यताएँ बहुत कुछ जैनों से मिलती जुलती है। जैनों की भाँति वहाँ के लोग ईश्वर को सृष्टि का कर्ताधर्ता एवं हर्ता नहीं मानते। मूली, प्याज, लहसुन आदि जमीकंद नहीं खाते। जूते भी पेड़ की छाल के बने हुए पहनते थे। 'आत्मवत सर्वभूतेषु' के सिद्धान्त को मानते और पालन करते रहे हैं। आज से छह हजार वर्षों के पहले से ही शाकाहार की श्रेष्ठता को मानते रहे हैं। उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है, कि जैन दर्शन के सिद्धान्त अति प्राचीन ही नहीं वरन् अत्यन्त विस्तृत क्षेत्र में प्रसारित थे। 2. अजितनाथ जी : __भगवान ऋषभदेव के मोक्ष गमन के बहुत समय पश्चात् द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ जी हुए। दोनों तीर्थंकरों के निर्वाण का अन्तरकाल पचास लाख कोटि सागरोपम का था।" जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में अयोध्या के महाराजा इक्ष्वाकुवंशीय, काश्यपगोत्री जितशत्रु एवं महारानी विजया के पुत्र रत्न के रूप में अजितनाथ ने जन्म लिया। उनके गर्भ में आते ही महारानी विजयसेना ने चौदह स्वप्न देखे। उनके संपूर्ण गर्भकाल में महाराजा जितशत्रु अपने शत्रुओं द्वारा अजेय माने गये, अतः प्रभु का नाम अजित रखा गया। महारानी विजय सेना ने माघ मास के शुक्लपक्ष की दशमी के दिन प्रजेश योग में तीर्थंकर भगवान को जन्म दिया। जन्म होते ही सुन्दर स्वर्ण रंग के शरीर वाले प्रभु को 64 इन्द्रादि देव मेरु पर्वत पर ले गए और वहाँ उनका जन्माभिषेक महोत्सव किया गया। भगवान अजितनाथ की आयु 72 लाख पूर्व की थी तथा 450 धनुष का देहमान था। भगवान अजितनाथ ने बाह्य एवं आभ्यान्तर के समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली थी। जब उनकी आयु का चतुर्थांश बीत गया, तब उनका राज्याभिषेक किया गया। एक लाख पूर्व कम अपनी आयु के तीन भाग तथा एक पूर्वांग तक उन्होंने सूर्य से भी अधिक तेजस्वी राजा की भाँति राज्य किया। उसके पश्चात् अपने पुत्र अजितसेन का राज्याभिषेक करके, स्वयं राज्य से विरक्त होकर एक वर्ष तक वर्षीदान दिया। उसके पश्चात् माघ शुक्ला नवमी के दिन रोहिणी नक्षत्र को सहेतुक वन में
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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