SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 51 सप्तपर्ण वृक्ष के समीप जाकर सायंकाल के एमय एक हजार अनुगामी राजाओं के साथ पंचमुष्ठि लोच करके दीक्षा धारण की। उसी समय वे मनः पर्याय ज्ञान से सम्पन्न हो गए। दीक्षा : दीक्षा के पश्चात् अजितनाथ जी को सातावेदनीय पुण्यबन्ध के कारण भिक्षादि सहज ही मिल जाती थी। प्रभु बारह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में रहे। उसके पश्चात् पौष शुक्ला एकादशी को शाम को रोहिणी नक्षत्र में केवलज्ञान प्राप्त कर प्रभु अजितनाथ जी सर्वज्ञ हो गए। धर्म परिवार : तीर्थंकर अजितनाथ जी के सिंहसेन आदि नब्बे गणधर थे। तीन हजार सातसौ पचास पूर्वधारी, इक्कीस हजार छह सौ शिक्षक, नौ हजार चार सौ अवधिज्ञानी, बीस हजार केवलज्ञानी, बीस हजार चार सौ विक्रिया ऋद्धि वाले, बारह हजार चार सौ पचास मनः पर्ययज्ञानी और बारह हजार चार सौ अनुत्तरवादी थे। इस प्रकार सब मिलाकर एक लाख तपस्वी थे। प्रकुब्जा आदि तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ थी, तीन लाख श्रावक थे तथा पाँच लाख श्राविकाएँ थीं।” निर्वाण : अजितनाथ जी न तो पापों से जीते जाते हैं, न ही प्रतिवादियों से जीते जाते हैं। वे अपने नाम के अनुरूप ही अजित थे। इस प्रकार जन-जन के स्तुत्य प्रभु केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् समस्त आर्यक्षेत्र में विचरण करते हुए, अन्त में सम्मेदशिखर पर पहुँचकर एक मास तक वहीं रहे तथा शुक्लध्यान के आश्रय से असंख्यात कर्म-प्रकृतियों की निर्जरा की। इस प्रकार चैत्रशुक्ला पंचमी के दिन जबकि चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र पर था, प्रातः काल के समय प्रतिमायोग धारण करके भगवान अजितनाथ जी ने मोक्ष प्राप्त किया। सगर चक्रवर्ती : द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ के तीर्थकाल में ही दूसरा चक्रवर्ती सगर हुआ। अयोध्या नगर में ही इक्ष्वाकुवंशीय राजा समुद्रविजय तथा रानी सुबला के सगर नाम का पुत्र हुआ। उसकी आयु सत्तर लाख पूर्व की थी। वह चार सौ पचास धनुष ऊँचा था, सब लक्षणों से परिपूर्ण था, लक्ष्मीमान था तथा सुवर्ण के समान कान्ति से युक्त था। उसके अठारह लाख पूर्व कुमार अवस्था में व्यतीत हुए। उसके पश्चात् महामण्डलेश्वर का पद प्राप्त हुआ। उसके बाद इतना ही काल बीत जाने पर छह खण्डों की पृथ्वी पर विजय दिलाने में समर्थ चक्र रत्न प्रकट हुआ। तत्पश्चात् प्रथम चक्रवर्ती भरत के समान ही सगर ने भी चिरकाल तक दिग्विजय किया और चक्रवर्ती सम्राट बना। फिर अनेक वर्षों तक निर्विघ्न चक्रवर्ती साम्राज्य लक्ष्मी का भोग किया। सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्र थे। राजा भगीरथ उनका पौत्र था, जिसने सगर के पुत्रों को जीवित करने के लिए गंगा को पृथ्वी पर लाने का अद्वितीय कार्य किया था। इसका उल्लेख वैदिक दर्शन में भी मिलता है। अंत में सगर अपने पुत्रों सहित दीक्षा धारण करके, यथा विधि तपस्या करके
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy