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________________ नीति मीमांसा 429 2. उपाध्याय : उपाध्याय का कार्य साधु कर्म के साथ-साथ जैन शास्त्रों का पठन-पाठन करना हैं 1 3. साधु : जो मात्र उपर्युक्त गुणों को पालता हुआ ज्ञान-ध्यान में लीन रहता है, वह साधु है। इस प्रकार जैन मुनि अपने कर्तव्य के अनुसार ही जीवन यापन करते हैं । यह मुनि धर्म ही श्रमण धर्म या अनगार धर्म है । अतः यहाँ हम श्रमण धर्म के मूलभूत तत्त्वों का विस्तृत विवेचन करेंगे। 1. महाव्रत : श्रमण धर्म की आधारशीला महाव्रत है। महाव्रतों की अनुपालना और उनका निरतिचार अनुशीलन श्रमण के लिए अत्यन्त आवश्यक है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि ये पाँच महाव्रत कहे गये हैं ।" प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के काल से लेकर महावीर के समय तक का आचारविचार का अध्ययन करने पर मानवीय स्वभाव के भिन्न-भिन्न रूप दिखाई देते हैं । काल प्रभाव के अनुरूप ही महाव्रतों का प्रवर्तन किया गया है। भगवान ऋषभदेव के काल में मानव अति सरल स्वभावी एवं जड़बुद्धि था । अतः नियमों का पूर्ण विशेषण आवश्यक था । इसी प्रकार महावीर के काल में मानव वक्र स्वभावी एवं जड़बुद्धि होने के कारण नियमों का विस्तार से विश्लेषण करना आवश्यक था। अतः भगवान ऋषभदेव और महावीर स्वामी दोनों ही तीर्थंकरों ने पाँच महाव्रतों का प्रवर्तन किया । मध्य के शेष 22 तीर्थंकरों के काल में मानव सरल स्वभावी एवं प्राज्ञ अर्थात् सूक्ष्म बुद्धि का था, अतः उनमें विषय को सहज ग्रहण करने एवं आचरण करने की प्रवृत्ति थी । अतः उन बाईस तीर्थंकरों ने चार महाव्रतों का ही प्रतिपादन किया तथा पांचवें महाव्रत ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह में ही अन्तर्निहित रखा गया। जैसा कि पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म से ज्ञात होता है । उत्तराध्ययन सूत्र के केशी - गौतम संवाद में इस बात को स्पष्ट किया गया है। पार्श्वनाथ से पूर्व के 21 तीर्थंकरों के समय भी इसी चातुर्याम धर्म का प्रवर्तन किया गया था। वर्तमान काल में अनुगमनीय पाँच महाव्रत निम्नलिखित हैं - 1. सर्व प्राणातिपात विरमण व्रत (अहिंसा) : हिंसा का सर्व प्रकार से संपूर्ण त्याग करना ही सर्व प्राणातिपात विरमण व्रत है । श्रमण इस व्रत को धारण करते हुए यह प्रतिज्ञा करते हैं, कि मैं समस्त प्राणातिपात का त्याग करता हूँ । आजीवन तीन करण, तीन योग से समस्त जीवों, चाहे वह सूक्ष्म हो या बादर, त्रस हो या स्थावर, मैं स्वयं किसी के प्राणों का हनन नहीं करूँगा, दूसरों से नहीं कराऊँगा और प्राणातिपात करते हुए अन्य किसी जीव को अच्छा नहीं समझँगा । भूतकाल में किये गए प्राणातिपात के लिए मैं पश्चाताप (प्रतिक्रमण ) करता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, ग करता हूँ और उस पापयुक्त आत्मा को छोड़ता हूँ। इस प्रकार हे ! भगवान मैं सब
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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