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________________ 430 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन प्रकार के प्राणातिपात विरमण व्रत को अंगीकार करता हूँ। इस व्रत के निर्दोष पालन के लिए वह सावधानी से गमन करते हैं, मन, वचन, काया के प्रयोग में बहुत सावधान रहते हैं तथा आहार-पानी को बहुत देखभाल कर ग्रहण करते हैं।" 2. सर्व मृषावाद विरमण व्रत (सत्य) : समस्त प्रकार के असत्य (मृषावाद) का पूर्ण रूप से त्याग ही सर्वमृषावाद विरमण व्रत है। मृषावाद चार प्रकार का कहा गया है - 1. सद्भाव प्रतिषेध : जो वस्तु है, उसके विषय में कहना नहीं है। 2. असद्भाव-उद्भावन : जो नहीं है, उसे कहना कि यह है। 3. अर्धान्तर : एक वस्तु को दूसरी कहना। जैसे गाय को घोड़ा कहना। 4. गर्दा : सत्य होने पर भी जो पर पीड़ाकारी हो, ऐसा वचन बोलना, गर्दा असत्य है। इस महाव्रत को धारण करते हुए श्रमण यह प्रतिज्ञा करते हैं, कि मैं सर्व प्रकार के मृषावाद का प्रत्याख्यान करता हूँ। आजीवन तीन करण, तीन योग से मन, वचन, काया से, क्रोध से या लोभ से, भय से या हंसी से मैं स्वयं असत्य नहीं बोलूंगा, दूसरों से असत्य नहीं बुलवाऊँगा तथा असत्य बोलने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूँगा। भंते! मैं अतीत के मृषावाद से निवृत होता हूँ, उसकी निन्दा तथा गर्दा करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। 3. सर्व अदत्तादान विरमण व्रत (अचौर्य) : किसी के द्वारा न दी हुई वस्तु को ग्रहण करने का संपूर्ण त्याग करना सर्व अदत्तादान विरमण व्रत है। स्थानांग सूत्र की टीका में चार प्रकार के अदत्त कहे गए हैं 1. स्वामी अदत्त : जो वस्तु उसके मालिक द्वारा न दी गई हो। 2. जीव अदत्त : स्वामी के द्वारा दिये जाने पर भी स्वयं जीव की स्वीकृति या इच्छा न हो। जैसे माता-पिता द्वारा पुत्र को साधु को दे दिए जाने पर भी स्वयं पुत्र की इच्छा न हो। 3. तीर्थंकर अदत्त : तीर्थंकर ने जिस आचरण की अनुमति न दी हो। 4. गुरु अदत्त : तीर्थंकर द्वारा अनुज्ञात होने पर भी यदि गुरु की आज्ञा न हो तो उसे ग्रहण करना गुरु अदत्त है। इस प्रकार तीर्थंकर और गुरु की आज्ञा के विपरीत आचरण करना, अपने मनोभावों को छुपाना भी अदत्तादान है। इस तीसरे महाव्रत को अंगीकार करते हुए श्रमण प्रतिज्ञा करते हैं, कि भंते! मैं सर्व प्रकार के अदत्तादान का त्याग करता हूँ। आजीवन तीन करण, तीन योग से-मन, वचन, काया से, गाँव में, नगर में या अरण्य में कहीं भी अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त, किसी भी अदत्त वस्तु को मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा, दूसरों
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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