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________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 37 साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका के लिए अपनी-अपनी एक नवीन आचार संहिता का निर्माण करते हैं। एक तीर्थंकर द्वारा संस्थापित श्रमण-श्रमणी, श्रावक और श्राविका रूप तीर्थ में काल-प्रभाव से जब अनेक प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, तीर्थ में लम्बे व्यवधान तथा अन्य कारणों से भ्रान्तियाँ पनपने लगती है, कभी-कभी तीर्थ विलुप्त अथवा विलुप्त प्रायः, विश्रृंखल अथवा शिथिल हो जाता है, उस समय दूसरे तीर्थंकर का समुद्भव होता है। तब वे विशुद्ध रुपेण नवीन तीर्थ की स्थापना करते हैं, अतः वे तीर्थंकर कहलाते हैं। दो तीर्थंकरों के होने के बीच का अन्तराल समय बहुत अधिक होने से पुनः नवीन तीर्थ की स्थापना की आवश्यकता होती है। जैसे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवजी के पश्चात् पन्द्रह लाख करोड़ सागर वर्षों के बाद दूसरे तीर्थंकर अजितनाथजी का जन्म हुआ था। इसी प्रकार अन्यान्य तीर्थंकरों का आविर्भाव और स्थितिकाल भी समझना चाहिये। आदि तीर्थंकर ऋषभदेव : आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे के उपसंहार काल में हुए हैं।” इसी आरे के तीस वर्ष और साढ़े आठ मास शेष रहते उनका निर्वाण हो गया। श्रीमद्भागवत और मनुस्मृति के अनुसार भी भगवान ऋषभदेव का जन्म मनु की पाँचवी पीढ़ी में हुआ था। गणना करने पर वह काल प्रथम सत युग का अंतिम चरण निकलता है। उस सतयुग के बाद आज तक 28 सतयुग बीत चुके हैं। ब्रह्मा जी की आयु का भी बहुत सा भाग समाप्त हो चुका है। वे राम और कृष्ण के अवतारों से भी पूर्व में हो चुके हैं। जैन साहित्यानुसार इस अवसर्पिणी काल की अपेक्षा से जैन धर्म के आद्य प्रणेता समाज स्रष्टा और नीति-निर्माता भगवान ऋषभदेव हुए हैं। वे आत्म-विद्या के प्रथम पुरस्कर्ता है। वे प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्म चक्रवर्ती थे। जन्म : भगवान ऋषभदेव का जन्म अयोध्या के राजा नाभिराज एवं रानी मरुदेवी के यहाँ चैत्र कृष्णा नवमी को हुआ था। कल्पसूत्र में उल्लेख है, कि उनका जन्म चैत्र कृष्ण अष्टमी को हुआ था। भगवान ऋषभदेव का जीव जब सर्वार्थसिद्धि देवलोक से च्यवकर माता मरुदेवी की कुक्षि में अवतरित हुआ, उसी रात्रि में माता मरुदेवी ने चौदह महास्वप्न देखे। वे इस प्रकार हैं - 1. वृषभ, 2 हाथी, 3. सिंह, 4. लक्ष्मी, 5. पुष्पमाला, 6. चन्द्र, 7. सूर्य, 8. महेन्द्र ध्वज, 9. कुंभ, 10. पद्मसरोवर, 11. क्षीरसागर, 12. देव विमान, 13. रत्नराशि, 14. निधूम अग्नि। इस प्रकार जैन आगमों में यह परम्परा मानी गई है, कि सभी तीर्थंकरों की
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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