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________________ 36 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन इस समय अवसर्पिणी काल चल रहा है और हम लोग उसके पांचवे आरे में गुजर रहें है। सुखमा दुखमा नाम के आरे में धर्म-तीर्थंकरों का जन्म होता है। चूंकि जैन दर्शन में 24 तीर्थंकरों की परम्परा प्रचलित है। वर्तमान अवसर्पिणी काल में भी 24 तीर्थंकर हुए है। चौबीस तीर्थंकरों के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन उल्लेख दृष्टिवाद के मूल प्रथमानुयोग में था, लेकिन आज वह अनुपलब्ध है। 45 आज सबसे प्राचीन उल्लेख समवायांग, कल्पसूत्र, आवश्यक निर्युक्ति, आवश्यक मलयगिरी वृत्ति, आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति और आवश्यक चूर्णि में मिलता है। जैन दर्शन में तीर्थंकर शब्द अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। तीर्थंकर जैन धर्मसंघ (तीर्थ) का जनक, कर्ता या निर्माता होता है । जो संसार सागर से पार करने वाले धर्म-तीर्थ की स्थापना करते हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये धर्म हैं । इस धर्म का तथा इसे धारण करने वाले श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ रूप तीर्थ का प्रवर्तन, स्थापना करने वाले विशिष्ट व्यक्तियों को तीर्थंकर कहते हैं I जैन धर्म किसी व्यक्ति विशेष का पूजक नहीं है। इसे ऋषभदेव, पार्श्वनाथ या महावीर का धर्म नहीं कहा गया है । यह अर्हंतों का, जिन का धर्म है। जैन धर्म के मूल महामंत्र 'नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं' में किसी व्यक्ति विशेष को नमस्कार नहीं किया गया है। जैन धर्म का स्पष्ट अभिमत है, कि कोई भी व्यक्ति आत्मिक उत्कर्ष कर मानव से महामानव बन सकता हैं, तीर्थंकर बन सकता है । 1146 वर्तमान अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम ऋषभदेव भगवान ने तीर्थ की स्थापना की, अतः वे प्रथम तीर्थंकर है। कुछ विद्वानों का मानना है, कि उनके पश्चातवर्ती तेईस तीर्थंकरों द्वारा भी वैसे ही धर्म तीर्थों की परम्परा का प्रतिपादन किया जाता है, तो उन्हें तीर्थंकर क्यों माना जाए ? इसके समाधान में निवेदन है, कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और अनेकान्त आदि जो धर्म के आधारभूत मूल सिद्धान्त हैं, वे शाश्वत सत्य और सदा सर्वदा अपरिवर्तनीय हैं। अतीत के अनन्तकाल में जो अनन्त तीर्थंकर हुए हैं, वर्तमान में जो श्री सीमंधर स्वामी आदि तीर्थंकर हैं और अनागत अनन्तकाल में जो अनन्त तीर्थंकर होंगे, उन सबके द्वारा धर्म के मूल स्तम्भ स्वरूप इन शाश्वत सत्यों के संबंध में समान रूप से प्ररूपणा की जाती रही है, की जा रही है और की जाती रहेगी। धर्म के मूल तत्त्वों के निरूपण में एक तीर्थंकर से दूसरे तीर्थंकर का किंचित मात्र भी मतभेद न कभी रहा और न कभी रहेगा। लेकिन प्रत्येक तीर्थंकर अपने-अपने समय में देश, काल व जन मानस की ऋजुता, तत्कालीन मानव की शक्ति, बुद्धि, सहिष्णुता आदि को ध्यान में रखते हुए उस काल और उस काल के मानव के अनुरूप
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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