SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वमीमांसा 383 2. पाणपुण्णे : पानी का दान करने से जो पुण्य - प्रकृति का बंध होता है, वह पान पुण्य 1 3. वत्थपुणे : वस्त्रों का दान करने से जो पुण्य का बंध होता है, वह वस्त्र पुण्य है। 4. लयणपुण्णे : मकान आदि स्थान का दान करने से जो पुण्य प्रकृति का बंध होता है, वह लयण पुण्य है। 5. सयण पुणे 3 पाट-पाटला, बिछौना आदि संस्तारक देने से जो पुण्य बंध होता है, वह सयण पुण्य है। 6. मणपुण्णे : मन से दूसरों की, गुणी जनों की, भलाई चाहने से गुणियों के प्रति तुष्टि - प्रमोद भावना रखने से मन पुण्य होता है । 7. वइ पुण्णे : वचनों द्वारा गुणी जनों का कीर्तन करने से, उनकी प्रशंसा करने से तथा हित-मित प्रिय वचन बोलने से वचन पुण्य होता है । 8. काय पुण्णे : शरीर द्वारा दूसरों की सेवा करने से, अन्य जीवों को साता पहुँचाने से, पराया दुःख दूर करने से गुणीजनों की सेवा-सुश्रुषा, पुर्वपासना करने से जो पुण्य प्रकृति का बन्ध होता है, वह काय पुण्य हैं 1 9. नमोक्कार पुण्णे : योग्य पात्र को नमस्कार करने से सबके साथ विनम्र व्यवहार करने से जो पुण्य - प्रकृति का बंध होता है, वह नमस्कार पुण्य है। उपर्युक्त नौ प्रकार का पुण्य करते समय शुभ भावपूर्वक पौद्गलिक पदार्थों पर से ममता उतारनी पड़ती है, परिश्रम भी करना पड़ता है, किन्तु पुण्य का फल प्राप्त होने पर दीर्घ समय तक आराम एवं सुख की प्राप्ति होती है तथा शुद्ध धर्म की आराधना का सुअवसर प्राप्त होता है । पुण्य के चार प्रकार: पुण्य का फल सुख माना गया है, परन्तु लोक व्यवहार में देखा जाता है, कि अनेक पुण्य कर्म करने वाले व्यक्ति दुःखी देखे जाते हैं और अनेक पापकर्म करने वाले व्यक्ति - लौकिक समृद्धि से परिपूर्ण देखे जाते हैं । इस विसंवाद का क्या कारण है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए जैनाचार्यों ने पाप-पुण्य के चार प्रकार बताए हैं 1. पुण्यानुबंधी - पुण्य, 2. पापानुबंधी पुण्य, 3. पापानुबंधी पाप, 4. पुण्यानुबंधी पाप । 1. पुण्यानुबंधी पुण्य : जिस पुण्यं के कारण से वर्तमान में भी शुभ सामग्री प्राप्त हुई है और आगे के लिए भी जिस पुण्य से अधिक शुभ सामग्री प्राप्त होने वाली है, वह पुण्यानुबंधी पुण्य है। जैसे किसी व्यक्ति पूर्वोपार्जित पुण्य प्रकृति से मनुष्य भव में अच्छी सामग्री प्राप्त की और आगामी भव में देवगति रूप और भी अधिक अच्छी सामग्री प्राप्त करने वाला हैं, तो वह पुण्य आगामी शुभानुभाव का कारण होने से पुण्यानुबंधी
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy