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________________ 382 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन और उनके परिग्रह और संग्रह में ही जीवन के बहु भाव को नष्ट नहीं करना है। वरन् उस पर को पर समझ कर ही जीव और अजीव का भेदज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसी आशय से अजीव तत्त्व का विस्तृत विवेचन किया गया है। 3. पुण्य : पुण्य को जैन दर्शन में स्वतंत्र तत्त्व के रूप में स्थान दिया है। वैसे तो जो कुछ विश्व में है, वह सब जीव और अजीव तत्त्व में समाहित हो जाता है, जैसा कि आगम में कहा गया है। 965 "जमत्थिणं लोगे तं सव्वं दुषओ आरं, तंजहा, जीवच्चेव अजीवाच्चेव । ' अर्थात् समस्त लोक में जो कुछ भी सत् है, वह सब दो तत्त्वों में समाविष्ट हो जाता है - जीव और अजीव । ऐसा कथन संग्रह नय की दृष्टि से किया गया है। लेकिन मुमुक्षु जीवों को मोक्ष मार्ग का ज्ञान कराने की अपेक्षा से ही नव तत्त्व रूप से तत्त्वों का विवेचन किया गया है । इस प्रकार जीव- अजीव के साथ ही पुण्य-पाप आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष को भी जैन दर्शन में तत्त्व की संज्ञा दी गई है। जैन दर्शन सम्मत नवतत्त्वों में से तीसरा तत्त्व पुण्य है । जो आत्मा को शुभ करता है अथवा उसे पवित्र बनाता है, वह शुभ कर्म पुण्य है। सारी शुभ प्रवृत्तियाँ और शुभ प्रकृतियाँ पुण्य के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाती हैं। साक्षात या परम्परा से पुण्य आत्मा के लिए उपकारक है। यहाँ तक कि तीर्थंकरत्व की प्राप्ति का कारण भी तीर्थंकर नाम कर्म नामक पुण्य - प्रकृति है । जिस प्रकार सांसारिक सुख के साधनभूत भोजन, वस्त्र, और आवास आदि पदार्थों को प्राप्त करने में पहले कुछ कष्ट उठाना पड़ता है, किन्तु बाद में लम्बे समय तक उनसे सुख मिलता है। इस प्रकार पुण्य उपार्जन करने में प्रथम तो कष्ट उठाना पड़ता है, किन्तु बाद में लम्बे समय तक उनसे सुख मिलता है। पुण्य उपार्जन करना सरल नहीं है। पुद्गलों की ममता त्यागे बिना, गुणज्ञ हुए बिना, योगों को शुभ कार्यों में लगाए बिना, दूसरों के दुःख को अपना दुःख मानकर उसे दूर करने की भावना और प्रवृत्ति किए बिना पुण्य का उपार्जन नहीं होता है । पुण्य के नव-प्रकार : पुण्य उपार्जन करने के लिए शास्त्रकार ने नव - प्रकार बताए हैं- जैसा कि आगम में कहा गया है - 'नव विहे पुत्रे पण्णत्ते तं जहा - अन्न पुन्ने 1, पाणपुन्ने 2, वत्थपुन्ने 3, लेण पुन्ने 4, सयणपुन्ने 5, मण पुन्ने 6, वइ पुने 7, काय पुन्ने 8, नमोक्कार पुणे 9 ।' अर्थात् पुण्य निम्नलिखित नौ प्रकार का कहा गया है - 765 - 1. अन्नपुणे : निस्वार्थ भाव से अन्न दान करने से जो पुण्य बन्ध होता है, वह अन्न पुण्य है- उसमें विधि द्रव्य-देय वस्तु, दाता और पात्र लेने वाले के वैशिष्ट्य से पुण्य-बन्ध में विशिष्टता आती है।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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