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________________ 384 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन पुण्य कहा जाता है। 2. पापानुबंधी पुण्य : पूर्वोपार्जित पुण्य प्रकृति के कारण वर्तमान में तो शुभ सामग्री प्राप्त हुई हो, किन्तु अपने अच्छे वर्तमान भव से असद्धर्म का आचरण कर आगे नरकादिक भव में जाता है, तो वह पापानुबंधी पुण्य है। 3. पापानुबंधी पाप : पूर्वोपार्जित अशुभ कर्म से वर्तमान भव में भी तिर्यंच आदि अशुभ अनुभाव की प्राप्ति जिससे हुई हो, तथा जो आगामी भव में भी नरकादि अशुभतर अनुभव की प्राप्ति का निमित्त बने वह कर्म पापानुबंधी पाप है। 4. पुण्यानुबंधी पाप : जिससे पूर्वोपार्जित अशुभ कर्म के कारण से वर्तमान में अशुभ अनुभाव का अनुभव जिससे हो, लेकिन वर्तमान में अशुभ अनुभाव का अनुभव करके वह सद्धर्म का आचरण करता हुआ आगामी भव के लिए शुभ अनुभाव की भूमिका तैयार करता है, वह पुण्यानुबंधी पाप कहा जाता है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है, कि मनुष्य को सदैव शुद्ध साध्य के लिए भी पुण्यानुबंधी पुण्य का ही आचरण करना चाहिये। क्योंकि इसके माध्यम से नर नश्वरअमर-निर्वाण एवं अविनश्वर स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। ज्ञान वृद्ध श्रुत स्थविरों की सम्यक् उपासना के कारण प्राप्त विशुद्ध आगम के ज्ञान द्वारा जिसका चित्त निर्मल हो गया है, वही व्यक्ति पुण्यानुबंधी पुण्य का अनुष्ठान कर सकता है। चित्तरत्न की निर्मलता ही अभ्यान्तर धन कहा जाता है। जिसका निर्मल चित्त रूपी रत्न दोषों के द्वारा चुरा लिया गया हो, उसके लिए केवल विपत्तियाँ ही बची रहती हैं। सब जीवों पर दया करना, वैराग्यभाव धारण करना (राग-द्वेष रहितता) विधिपूर्वक गुरु की उपासना करना, निरतिचार व्रतों का पालन करना आदि पुण्यानुबंधी पुण्यबंध के उपाय हैं। पुण्य की 42 प्रकृतियाँ : पुण्य का पूर्वोक्त अन्न पुण्णे आदि नौ प्रकार से बंध होता है और निम्नोक्त 42 शुभ प्रकृतियों के रूप में पुण्य का फल प्राप्त होता है। इन 42 शुभकर्म प्रकृतियों को ही पुण्य प्रकृति के रूप में पहचाना जाता हैं - 1. साता वेदनीय, 2. उच्चगौत्र, 3. मनुष्यगति, 4. मनुष्यानुपूर्वी, 5. देवगति, 6. देवानुपूर्वी, 7. पंचेन्द्रिय जाति, 8. औदारिक शरीर, 9. वैक्रियक शरीर, 10. आहारक शरीर, 11. तैजस शरीर, 12. कार्मण शरीर, 13. औदारिक अंगोपांग, 14. वैक्रियक अंगोपांग, 15. आहारक अंगोपांग, 16. वज्र ऋषभनाराच संहनन, 17. समचतुरस्र संस्थान, 18. शुभ वर्ण, 19. शुभ गंध, 20. शुभ रस, 21. शुभ स्पर्श, 22. अगुरु लघुत्व, 23. पराघात नाम, 24. उच्छवास नाम, 25. आतप नाम, 26. उद्योत नाम, 27. शुभ विहायोगति (चलने की गति), 28. शुभ निर्माणनाम, 29. त्रस नाम, 30. बादर नाम, 31. पर्याप्त नाम, 32. प्रत्येक नाम, 33. स्थिर नाम, 34. शुभ नाम, 35. सुभग नाम, 36.
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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