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________________ तत्त्व मीमांसा * 381 गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार भेद से जो चौदह प्रकार के मार्गणा स्थान हैं, सभी अजीव हैं। आत्मा जितने काल तक कर्म परमाणुओं से बद्ध रहता है, वह काल की सीमा रूप स्थिति बन्ध स्थान भी अजीव ही है। राग-द्वेष आदि कषायों के तीव्र उदय रूप संक्लेश स्थान तथा कषाय-शमन रूप विशुद्ध स्थान भी अजीव हैं। बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्विन्द्रीय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय व असंज्ञी पंचेन्द्रिय इन सात के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से चौदह जीव स्थान होते हैं. ये जीव स्थान भी जीव न होकर अजीव ही हाते हैं। मिथ्या दृष्टि, सासादन-समदृष्टि, सम्यग्मिथ्या दृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्त संयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्व करण उपशमक तथा क्षपक, सूक्ष्म सांपराय-उपशमक तथा क्षपक उपशान्त कषाय, क्षीण कपाय, सयोगी केवली और अयोगी केवली थे। जो जीव के चौदह गुणस्थान हैं, वे भी वस्तुतः अजीव ही हैं। ___ शरीर, मन, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छवास और वचन आदि सब पुद्गल परिणाम ही है। जिसमें शरीर तो चेतन के संसर्ग से चेतनायमान हो रहा है। जगत् में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श वाले यावत् पदार्थ पोद्गलिक हैं। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि सभी पौदगलिक हैं। शब्द, प्रकाश, छाया, अन्धकार, सर्दी-गर्मी सभी पुदगल स्कन्धों की अवस्थाएँ हैं। मुमुक्षु के लिए शरीर की पौद्गलिकता का ज्ञान तो इसलिए अत्यन्त आवश्यक है, कि उसके जीवन की आसक्ति का केन्द्र वही है। यद्यपि वर्तमान में आत्मा का 99 प्रतिशत विकास और प्रकाश शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। शरीर के पुों के बिगड़ते ही वर्तमान ज्ञान विकास रूक जाता है, और शरीर के नाश होने पर वर्तमान शक्तियाँ प्रायः समाप्त हो जाती हैं, फिर भी आत्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व तेल-बत्ती से भिन्न ज्योति की तरह है ही। शरीर का अणु-अणु जिसकी शक्ति से संचालित और चेतनायमान हो रहा है, वह अन्तःज्योति दूसरी ही है। यह आत्मा अपने सूक्ष्म कार्मण शरीर के अनुसार वर्तमान स्थूल शरीर के नष्ट हो जाने पर दूसरे स्थूल शरीर को धारण करता है। आज तो आत्मा के सात्विक, राजस और तामस सभी प्रकार के विचार और संस्कार कार्मण शरीर और प्राप्त स्थूल शरीर के अनुसार ही विकसित हो रहे हैं। अतः मुमुक्षु के लिए इस शरीर-पुद्गल की प्रकृति का परिज्ञान अत्यंत आवश्यक है, जिससे वह इसका उपयोग आत्मा के विकास में कर सके, हास में नहीं। यदि आहार-विहार उत्तेजक होता है, तो कितना ही पवित्र विचार करने का प्रयास किया जाये, लेकिन सफलता नहीं मिल सकती। इसलिए बुरे संस्कार और विचारों का शमन करने के लिए या क्षीण करने के लिए उनके प्रबल निमित्तभूत शरीर की स्थिति आदि का परिज्ञान करना ही होगा। जिन पर पदार्थों से आत्मा को विरक्त होना है और जिन्हें पर समझ कर उनकी छीना झपटी की द्वन्द्व दशा से ऊपर उठाना है
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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