SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 380 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन होती है, वह बन्धन में पड़ता है, उस अजीव तत्त्व के ज्ञान की भी आवश्यकता है। जीव तत्त्व का प्रतिपक्षी अजीव तत्त्व है। इसमें चेतना शक्ति का सर्वथा अभाव है। जिसमें उपयोग न हो, जानने की शक्ति न हो, वह जड़ पदार्थ अजीव कहलाता है। अजीव जीव का विरोधी भावात्मक भाव है, वह सर्वथा अभावात्मक नहीं है। यह चेतनारहित, अकर्ता, अभोक्ता, अनादि, अनन्त, सदा शाश्वत तत्त्व है। यह सदाकाल निर्जीव रहने से अजीव कहलाता है। ___ अजीव तत्त्व मूलतः दो प्रकार का है - 1. रूपी अजीव तथा 2. अरूपी अजीव। रूपी अजीव तो एकमात्र पुद्गल द्रव्य एवं उसकी पर्यायें हैं। अरूपी अजीव के चार भेद हैं - 1. धर्म, 2. अधर्म, 3. आकाश तथा 4. काल। ये चार द्रव्य वर्णादि रहित होने से अरूपी अजीव है। इन चार अरूपी अजीवों का सामान्य ज्ञान जीव और अजीव के भेदज्ञान के रूप में एक कड़ी अवश्य है, फिर भी इनसे जीवों का कोई भला-बुरा नहीं होता है। पुद्गल द्रव्य का किंचित विशेष ज्ञान आवश्यक है, क्योंकि पुद्गल ही जीव के बन्धन का निमित्त है। ___ जीव पुद्गल के संयोग से बन्धन में पड़ता है। अजीव पुद्गल पर्यायों के प्रति राग-द्वेष व मोह के कारण ही संसार भ्रमण करता है। जीव अज्ञानवश पुद्गल पर्यायों को अपना जानता है। व्यवहार में जो पुद्गल पर्याय जीव की जानी जाती हैं, वे वास्तव में जीव नहीं है, क्योंकि पुद्गल स्वयं अजीव है। अतः उसकी पर्यायें भी अजीव ही हैं। शरीर, इन्द्रियाँ, वर्ण, रूप, रस, गन्ध-स्पर्श आदि पुद्गल पर्यायें भी अजीव ही हैं। राग-द्वेष-मोह आदि पौद्गलिक मोह कर्म के परिणाम हैं। मिथ्यात्व, अविरति, कपाय, योग रूप जो प्रत्यय हैं, वे कर्म-बन्धन के निमित्त होने से आस्रव कहे जाते हैं। ये भी पुद्गल के ही परिणाम विशेष हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गौत्र व अन्तराय रूप जो आठ कर्म हैं, पुद्गल परिणाम हैं। जो कर्म फल देकर आत्म प्रदेशों से पृथक् हो गए हैं या जो अभी कर्म रूप में परिणत नहीं हुए हैं, ऐसे छह पर्याप्ति योग्य और तीन शरीर के योग्य वस्तुभूत जो नोकर्म हैं, वे भी पुद्गल परिणाम हैं। ___ कर्म परमाणुओं का समूह रूप स्पर्धक, वर्ग, वर्ग का समूह रूप वर्गणा तथा वर्गणा का समूह रूप स्पर्धक आदि सभी पुद्गल परिणाम होने से अजीव हैं। विशुद्ध चैतन्य परिणाम से भिन्न जो स्व-पर में एकत्व के अध्यास से आध्यात्मिक स्थान जाने जाते हैं, वह भी पुद्गल परिणाम के होने के कारण अजीव ही हैं। भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के इस परिणाम रूप अनुभाग स्थान, मन, वचन, काय वर्गणा के निमित्त से आत्म प्रदेश में होने वाले स्पन्द, रूप योग स्थान भी अजीव है। आत्मा के कर्म पुद्गल के आस्रव से जो बंध स्थान है तथा प्रारब्ध कर्मों की फल प्रदायी अवस्था रूप जो उदय स्थान है, वे सभी अजीव हैं।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy