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________________ तत्त्व मीमांसा * 379 जाते हैं, यद्यपि जीव का उनके साथ तादात्म्य नहीं होता। यदि इन भावों को निश्चय से जीव का मान लिया जाए, तब तो जीव और अजीव में कोई भेद ही नहीं रह जाएगा। आत्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व के सम्बन्ध में जैनों का मन्तव्य इस प्रकार है, कि निश्चय से आत्मा आत्मा को ही करता है तथा आत्मा आत्मा को ही भोगता है। अज्ञान दशा में भी आत्मा जिस शुभ-अशुभ भाव को करता है, निश्चय से वह उसका कर्त्ता होता है और वह भाव उस आत्मा का कर्म होता है तथा वही आत्मा उस भाव का भोक्ता होता है। शुभ अशुभ दोनों भाव आत्मा के अज्ञानमय भाव हैं, जो वास्तव में आत्म स्वभाव से भिन्न हैं, किन्तु आदि काल अज्ञान के कारण जीव उन्हें स्वकीय मानता है। इस प्रकार अज्ञान दशा में भी जीव अपने ही कृत कर्म का भोक्ता हो सकता है, अपने ही शुभ-अशुभ भावों का कर्ता हो सकता है, पर द्रव्य का कर्ता और भोक्ता नहीं हो सकता। यद्यपि परमार्थ से तो जीव शुभ-अशुभ भावों का भी कर्ता और भोक्ता नहीं है। यहाँ अशुद्ध उपादान की अपेक्षा से ही उसे उनका कर्ता और भोक्ता कहा गया है। किन्तु परभाव का कर्त्ता तो वह कदापि नहीं हो सकता। अर्थात् पुद्गल कर्म का कर्ता तो वह कदापि नहीं हो सकता। अर्थात् पुद्गल कर्म का कर्त्ता व भोक्ता जीव नहीं है, यद्यपि व्यवहार से कभी-कभी ऐसा कथन भी किया जाता है। किन्तु निश्चयनय से यह कदापि स्वीकार्य नहीं है। संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं - भव्य और अभव्य। जो जीव मुक्त होकर भविष्य में मोक्ष जाने की योग्यता रखते हैं, वे भव्य जीव है तथा जिनमें शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि की शक्ति का असद्भाव है, उन्हें अभव्य कहा जाता है। यहाँ प्रश्न उठता है, कि यह कैसे संभव है, कि कुछ जीव द्रव्य अपने स्वभाव को ही प्राप्त नहीं कर सकते? इसके उत्तर में कहा गया है, कि जिस प्रकार स्त्रियों में प्रजनन क्षमता होती है, किन्तु कुछ स्त्रियों में इसका अभाव होता है, उसी प्रकार कुछ जीवों में शुद्ध अवस्था की प्राप्ति की क्षमता नहीं होती है। आत्मा तीन प्रकार के होते हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। जो शरीर आदि पर पदार्थों को अपना रुप मानकर उनकी ही प्रियभोग सामग्री में आसक्त हैं, वे बहिर्मुख जीव बहिरात्मा हैं। जिन्हें स्व-पर विवेक या भेद विज्ञान उत्पन्न हो गया है, जिनकी शरीर आदि बाह्य पदार्थों से आत्म दृष्टि हट गई है, वे सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा है। जो समस्त कर्ममल कलंकों से रहित होकर शुद्ध चिन्मात्र स्वरूप में मग्न हैं, वे परमात्मा हैं। संसारी आत्मा ही अपने स्वरूप का यथार्थ परिज्ञान कर, अन्तर्दृष्टि हो क्रमशः परमात्मा बन जाता है। अतः आत्मधर्म की प्राप्ति या बन्धन-मुक्ति के लिए आत्मतत्त्व का परिज्ञान नितान्त आवश्यक है। 2. अजीव : जिस प्रकार मोक्ष प्राप्ति के लिए आत्मतत्त्व का ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार जिस अजीव के सम्बन्ध से आत्मा विकृत होता है, उसमें विभाव परिणति
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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