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________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 35 1. सुखमा-सुखमा-अत्यन्तसुखरुप। चार करोड़ा-करोड़ सागर। 2. सुखमा-सुखरुप। तीन करोड़ा करोड़ सागर। 3. सुखमा- दुखमा- सुख-दुःखरुप। दो करोड़ा करोड़ सागर । 4. दुखमा-सुखमा-दुःख-सुखरुप। बयालिस हजार वर्ष कम एक करोड़ा करोड़ सागर। 5. दुखमा- दुःखरुप। इक्कीस हजार वर्ष 6. दुखमा-दुखमा- अत्यन्त दुखरुप । इक्कीस हजार वर्ष। यह अवसर्पिणी काल के आरों का क्रम है। उत्सप्रिणी काल के छः आरों का क्रम इससे विपरीत है। वह दुःखमा-दुःखमा से प्रारम्भ होकर सुखमा-सुखमा पर समाप्त होता है। प्रत्येक कालचक्र की कुल अवधि बीस करोड़ा करोड़ सागरोपम की होती है। सागर (प्रकाश वर्ष की तरह) संख्यातीत वर्षों के समूह की संज्ञा है। यह संख्या होती है। एक संख्या -1 के आगे (5+7+15)=27 शून्य लगाने पर जितने अंक होते हैं, उतने वर्ष। जैन धर्म के अनुसार अवसर्पण की आदि सभ्यता अत्यन्त सरल और सहज थी। किसी तरह की कौटुम्बिक व्यवस्था न होने से कोई उत्तरदायित्व नहीं था। अतः कोई व्यग्रता नहीं थी। जैन परम्परा के अनुसार उस समय जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति कल्पवृक्षों से हो जाती थी। प्रकृति और मानवीय तत्वों का यह ऐसे सम्मिश्रण का युग था, जहाँ धर्म-साधना, पाप-पुण्य, ऊँच-नीच आदि द्वन्द्वात्मक प्रवृत्तियों का अस्तित्व नहीं था। जैन पुराणकरों ने ऐसी परिस्थिति के युग को भोग-भूमि व्यवस्था का युग कहा है। जब अवसर्पिणी कालचक्र का दूसरा और लगभग तीसरा विभाग क्रमश: व्यतीत हुआ, तो काल प्रभाव से सभी बातें हासोन्मुखी होने लगी। कल्पवृक्षों को लेकर छीना-झपटी होने लगी। इस असुरक्षा की स्थिति ने सुरक्षा और सहयोग का आह्वान किया। इससे सामूहिक व्यवस्था प्रतिफलित हुई, जिसे जैन साहित्य में 'कुल' नाम दिया गया। इस व्यवस्था के संस्थापक को 'कुलकर' कहा गया। जैन परम्परा में इस तरह से 14 कुलकर मान गए हैं। वैदिक दर्शन में 14 मनु माने हैं। मनु और कुलकर संभवतया एक ही थे। दोनों परम्पराओं में अंतिम कुलकर या मनु नाभिराज को ही माना गया है। इनके समय तक विभाजन के साथ-साथ सामान्य दण्ड व्यवस्था भी प्रारम्भ हो गई थी। नाभि और उनकी पत्नी मरुदेवी के पुत्र ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर हुए। चौबीस तीर्थंकरों की परम्परा- प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में चौबीस जिन तीर्थंकर होते हैं। वे प्रचलित या लुप्त धर्म को पुनः प्रचलित करते हैं।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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