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________________ 34 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन अस्तिनास्तिप्रवाद 5. ज्ञान प्रवाद 6. सत्य प्रवाद 6. आत्मप्रवाद, 8. कर्म प्रवाद, 9. प्रत्याख्यान, 10. विद्यानुप्रवाद, 11. कल्याण प्रवाद, 12. प्राणवाय, 13. क्रिया विशाल, 14. लोक बिन्दुसार । द्वादशांग- 14 श्वेताम्बर साहित्य में पूर्वो से ही अंगों की उत्पत्ति मानी गयी है। दिगम्बर परम्परा अंग साहित्य के बारे में मूक ही है। द्वादशांग निम्नलिखित है 1. आचारांग, 2. सूत्रकृतांग, 3. स्थानांग, 4. समवायांग, 5. व्याख्या प्रज्ञप्ति, 6. ज्ञाता धर्मकथा, 7. उपासक दशांग, 8. अन्तःकृदशा, 9. अनुत्तरोपपादिकदशा, 10. प्रश्न व्याकरण, 11. विपाक सूत्र, 12. दृष्टिवाद। दृष्टिवाद का विवेचन दिगम्बर साहित्य में भी किया गया है। अकलंकदेव ने दृष्टिवाद के पाँच अंग बताए हैं 1. परिकर्म, 2. सूत्र, 3. प्रथमानुयोग, 4. पूर्वगत, 5. चूलिका। वर्तमान में श्वोताम्बर सम्प्रदाय में द्वादशांग के अतिरिक्त 34 आगम और भी हैं वे ये हैं 12 उपांग, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, 10 पइन्ना एक नन्दी और एक अनुयोग द्वार । इस प्रकार वर्तमान में 45 आगमों को स्वीकार किया गया है। जैन इतिहास को जानने के मुख्य स्त्रोत ये जैनागम ही हैं। मुख्य रूप से इतिहास का विवेचन दृष्टिवाद अंग में हुआ है। दृष्टिवाद सूत्र के पाँच अंगों में से चौथा अंग इतिहास का है। जितना इतिहास है, वह सारा दृष्टिवाद के अन्तर्गत आने वाला ज्ञान है। अत: इतिहास का ज्ञान आगम का ज्ञान है। जैन धर्म के अनुसार सृष्टि शाश्वत है तथा अनादिकाल से गतिशील है। इसकी न आदि है, न अंत। जैन धर्म में काल परम्परा वैदिक धर्म के चार युगों (सत्य, द्वापर, त्रेता तथा कलियुग) की भांति मूलतः दो भागों में विभाजित की गई है- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। उत्सर्पिणीकाल विकासकाल है। इस काल में जीवों के बल, वीर्य, पुरुषार्थ, शरीर आयु आदि की तथा भौतिक पदार्थों में रस आदि की वृद्धि निरन्तर होती रहती है। अवसर्पिणी काल हास काल है। इस अवनतिशीलकाल में उक्त बातों में निरन्तर हानि होती चली जाती है। अर्थात् दुःख से सुख की ओर ले जाने वाला काल उत्सर्पिणी काल और सुख से दुःख की ओर ले जाने वाला काल अवसर्पिणी काल कहलाता हैं। ये दोनों काल मिलकर कालचक्र कहलाते हैं। ये सृष्टि रुपी गाड़ी के दो चक्र हैं। जैसे गाड़ी के चक्र में आरे बने रहते हैं और वे उस चक्र को विभक्त करते हैं, उसी प्रकार उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में छह-छह आरे होते हैं। इन आरों का कालमान संख्यातीत वर्षों का होता है। ये छह आरे इस प्रकार हैं।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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