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________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 33 अनेक स्थानों पर महावीर के मुख से कहलाया गया है, कि अमुक वस्तु पुरुषादानीय पार्श्वनाथ ने कही है, जिसको मैं भी कहता हूँ। इससे ‘पूर्व' श्रुत का अर्थ स्पष्ट हो जाता है, कि जो श्रुत महावीर से पूर्व की पार्श्वपत्यिक परम्परा से चला आ रहा है। . डॉ. योकोबी का भी ऐसा ही मत है।” जैन श्रुत के मुख्य विषय नवतत्त्व, पंच अस्तिकाय, आत्मा और कर्म का संबंध, उसके कारण, उसकी निवृत्ति के उपाय, कर्म का स्वरूप आदि हैं। इन्हीं विषयों का महावीर और उनके शिष्यों ने संक्षेप से विस्तार और विस्तार से संक्षेप करके भले ही कहा हो, पर वे सब विषय पार्खापत्यिक परम्परा के श्रुत में किसी न किसी रूप में निरुपित थे, इसमें कोई संदेह नहीं। एक भी स्थान पर महावीर या उनके शिष्यों में से किसी ने भी ऐसा नहीं कहा कि महावीर का श्रुत अपूर्व अथवा सर्वथा नवीन है। चौदह पूर्व के विषयों की एवं उनके भेद-प्रभेदों की जो टूटी-फूटी जानकारी नंदी सूत्र तथा धवला” में मिलती है, उसका आचारांग आदि 11 अंगों में तथा अन्य उपांगादि शास्त्रों में प्रतिपादित विषयों के साथ मिलान करने पर इसमें संदेह नहीं रहता कि जैन परम्परा के आचार-विचार विषयक मुख्य प्रश्नों की चर्चा पार्श्वपत्यिक परम्परा के पूर्वश्रुत और महावीर की परम्परा के अंगोपांग श्रुत में समान ही है। कल्पसूत्र में वर्णन है, कि महावीर के संघ में 300 श्रमण चतुर्दश पूर्व धारी थे। महावीर शासित संघ में 'पूर्वश्रुत' और आचारांगादि श्रुत दोनों की ही बड़ी प्रतिष्ठा रही. फिर भी 'पर्वत' की महिमा अधिक ही की जाती रही है। इसी से दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के साहित्य में आचार्यों का ऐसा प्रयत्न रहा है, कि वे अपने-अपने कर्म तथा ज्ञान आदि विषयक इतर पुरातन ग्रंथों का संबंध उस विषयक पूर्वश्रुत से जोड़ते हैं। दोनों परम्पराओं के वर्णन से इतना निश्चित ज्ञात होता है, कि संपूर्ण निर्ग्रन्थ परम्परा अपने वर्तमान श्रुत का मूल पूर्व में मानती आई है। ‘पूर्वश्रुत' में जिस-जिस देश काल का एवं जिन-जिन व्यक्तियों के जीवन का प्रतिबिम्ब था, उससे आचारांग आदि अंगों में भिन्न देश काल एवं भिन्न व्यक्तियों के जीवन का प्रतिबिम्ब पड़ा, यह स्वाभाविक है, फिर भी आचार एवं तत्त्वज्ञान के मुख्य प्रश्नों के स्वरूप में दोनों में कोई विशेष अंतर नहीं पड़ा। इस प्रकार जैन आगमिक साधनों में सर्व प्रथम स्थान चौदह पूर्वो का है, फिर द्वादशांग का है। चतुर्दश पूर्व अपने मूल स्वरूप में तो अब विद्यमान नहीं है। फिर भी उनकी विषय वस्तु दिगम्बर साहित्य में अकलंकदेव के 'तत्त्वार्थवार्तिक' में मिलती है तथा श्वेताम्बर साहित्य में नन्दि सूत्र में मिलती है। वहीं से हरिभद्र सूरि, अभयदेव, मलयगिरि आदि टीकाकारों ने विषय वस्तु को लिया है। वीरसेन की धवला टीका व षटखण्डागम में भी इनका विषय मिलता है। चतुर्दश पूर्व-147 1. उत्पाद पूर्व 2. अग्रायणी पूर्व 3. वीर्यानुप्रवाद 4.
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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