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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) 325 अर्थात् जो ज्ञायक भाव है, वह अप्रमत्त भी नहीं और प्रमत्त भी नहीं है, इस प्रकार इसे शुद्ध कहते हैं और जो ज्ञायक रूप से ज्ञात हुआ वह तो वही है, अन्य कोई नहीं । ज्ञानी के चारित्र, दर्शन, ज्ञान- यह तीन भाव व्यवहार से कहे जाते हैं, निश्चय से ज्ञान भी नहीं है, दर्शन भी नहीं है, चारित्र भी नहीं है, ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है। शुद्धनय से केवल एक आत्मा ही है। शुद्धनय का विषय अभेद एकरूप वस्तु है । जैसे-सोने के कंगन, हार, अंगूठी आदि सभी में मूल द्रव्य सोना है । अतः निश्चय नय से एक सोना ही सत्य है, भूतार्थ है । इस प्रकार निश्चयनय ही परमार्थ है, श्रेय है । लेकिन परमार्थ तक पहुँचने का मार्ग व्यवहारनय ही है । जो जीव उपक्रम भाव में अर्थात् श्रद्धा तथा ज्ञान, चारित्र के पूर्ण भाव को नहीं पहुँच सके हैं, साधक अवस्था में ही स्थित हैं, वे व्यवहारनय द्वारा ही उपदेश करने योग्य है। अतः व्यवहारनय को जानना भी आवश्यक है। व्यवहारनय : जो नय दूसरे पदार्थों के निमित्त से वस्तु का स्वरूप बतलाता है, उसे व्यवहारनय कहते हैं । व्यवहारनय को यद्यपि अभूतार्थ कहा गया है, क्योंकि वह मोक्ष नहीं है। लेकिन यही जीवन व्यवहार का आधार है तथा मोक्ष मार्ग का अवलम्बन है। जैसे अनार्य जन को अनार्य भाषा के बिना किसी भी वस्तु का स्वरूप ग्रहण करने के लिए, कोई समर्थ नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है।”” कुंदकुंदाचार्य ने व्यवहारनय की उपयोगिता इस प्रकार बतायी है : 172 "ववहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणिभणदि मोक्खपहे । णिच्छयणओ ण इच्छदि मोक्खपहे सव्वलिंगाणि ॥ "" 73 अर्थात् व्यवहारनय दोनों लिंगों को (मुनिलिंग और गृहस्थलिंग) मोक्ष मार्ग कहता है । निश्चयनय किसी लिंग को मोक्ष मार्ग नहीं मानता है । निश्चयनय से तो केवल ज्ञायक भाव ही मोक्ष है । लेकिन व्यवहार में तो श्रमण और श्रमणोपासक या श्रावक के भेद से दो प्रकार के द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग हैं, जिन पर चलकर जीव निश्चयनय तक पहुँच सकता है। व्यवहारनय के आधार पर ही सामान्य जीवन व्यवहार चलता है । यद्यपि व्यवहार नय वस्तु स्वरूप को दूसरे रूप में बतलाता है, तदपि वह मिथ्या नहीं है । क्योंकि जिस अपेक्षा से अथवा जिस रूप से वह वस्तु को विषय करता है, वह वस्तु उस रूप में भी उपलब्ध होती है । जैसे- हम कहते हैं, 'घी का घड़ा' इस वाक्य से वस्तु के असली स्वरूप का ज्ञान तो नहीं होता, यह नहीं ज्ञात होता है, कि घड़ा मिट्टी का है या पीतल का या अन्य किसी वस्तु का है । इसलिए इसे निश्चयनय नहीं कह सकते। लेकिन उस वाक्य से इतना अवश्य ज्ञात हो जाता है, कि इस घड़े में घी रखा जाता है। जिसमें घी रखा जाता है, उसे घी का घड़ा कहते हैं । व्यवहारनय से यह
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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