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________________ 326 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन कथन सत्य है और इसी आधार पर व्यवहारनय भी सत्य है, मिथ्या नहीं । व्यवहारनय मिथ्या तब होता है, जब उसके विषय को अन्यथा मान लिया जाय । यदि कोई 'घी का घड़ा' इस वाक्य का अर्थ यह समझे, कि घड़ा घी का बना हुआ है, तो वह सत्य और प्रमाणभूत नहीं होगा। कहीं भी घी से घड़ा बनता नहीं है, वरन् घड़ा घी का आधार मात्र रहता है, जब तक व्यवहारनय अपने व्यावहारिक सत्य पर स्थिर है, तब तक उसे मिथ्या नहीं कहा जा सकता। व्यवहारनय के दो भेद : 1. सद्भूत व्यवहारनय, 2. असद्भूत व्यवहारनय 1 एक वस्तु में गुण-गुणी के भेद से भेद को विषय करने वाला सद्भूत व्यवहार नय है। इसके भी दो भेद हैं- उपचरित सद्भूत व्यवहारनय और अनुपचरित सद्भूत व्यवहारय । सोपाधिक गुण गुणी में भेद ग्रहण करने वाला उपचरित सद्भूत व्यवहार न है । निरुपाधिक गुण-गुणी में भेद ग्रहण करने वाला अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय हैं, जैसे जीव का मतिज्ञान - श्रुतज्ञान आदि लोक में व्यवहार होता है । केवलज्ञान रूप निरुपाधिक गुण से युक्त केवली की आत्मा या वीतराग आत्मा का केवलज्ञान यह प्रयोग अनुपचरित सद्भुत व्यवहारनय है । असद्भूत व्यवहारनय के भी दो भेद हैं- प्रथम उपचरित असद्भूत व्यवहारनय तथा दूसरा अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय । सम्बन्ध से सहित वस्तु में सम्बन्ध को विषय करने वाला नय उपचरित असद्भूत व्यवहार है । जैसे - देवदत्त का धन । यहाँ देवदत्त का धन के साथ सम्बन्ध माना गया है, परन्तु वास्तव में वह कल्पित होने से उपचरित है । सम्बन्ध से रहित वस्तु में सम्बन्ध को विषय करने वाला नय अनुपचरित असद्भूत व्यवहार है । जैसे 'घी का घड़ा लाओ।' इस वाक्य में घृत और घट का सम्बन्ध उपचरित नहीं है, क्योंकि घट में घी भरा है या भरा था। घी का घड़ा (घी से निर्मित घड़ा) वास्तव में होता नहीं है, अतः वह असद्भूत व्यवहारनय है । अनुयोगद्वार सूत्र में अन्त में मोक्ष का कारण होने से समस्त नय अध्ययन का विचार ज्ञाननय और क्रियानय की अपेक्षा से किया गया है। इसके द्वारा ही नय निरुपण की सार्थकता को सिद्ध किया गया है "णायम्मि गिहियव्वे अगिहियव्वग्मि चेव अत्थम्मि । जइयव्वमेव इह जो उवएसो सो नओ नाम ॥ सव्वेसिं पि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणट्ठिओ साहू ॥' अर्थात् इन नयों के द्वारा हेय और उपादेय अर्थ का ज्ञान प्राप्त करके तद्नुकूल प्रवृत्ति करनी ही चाहिये । इस प्रकार का जो उपदेश है, वह (ज्ञान) नय कहलाता है। 11174
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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