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________________ 324 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन न भी हो। जैसे-इन्द्र और पुरन्दर शब्द पर्यायवाची हैं, अतः शब्दनय की दृष्टि से इनका एक ही अर्थ है, परन्तु समभिरुढ़नय के मत में उनके अलग-अलग अर्थ हैं। 'इन्द्र' शब्द से ऐश्वर्यशाली का बोध होता है, जबकि ‘पुरन्दर' से 'नगर के विनाशक' का बोध होता है। पर्यायवाची शब्दों में सर्वथा-एकान्त रूप से भेद मानना और अभेद का सर्वथा निषेध करना समभिरूढ़ नयाभास है। 7. एवंभूतनय : पदार्थ जिस समय अपनी अर्थ क्रिया में प्रवृत्त हो, उसी समय उसे उस शब्द का वाच्य मानना चाहिये-ऐसी निश्चय दृष्टि वाला नय एवंभूतनय है। समभिरुढनय इन्द्रनादि क्रिया के होने या न होने पर भी इन्द्र को 'इन्द्र' शब्द का वाच्य मान लेता है, परन्तु एवंभूतनय इन्द्र को ‘इन्द्र' शब्द का वाच्य तभी मानता है, जबकि वह इन्दन क्रिया में उपयोगपूर्वक प्रवृत्त हो रहा हो, अन्यथा नहीं। इस नय की दृष्टि घट तभी घट कहा जा सकता है, जब वह घट की अर्थ क्रिया जल धारण कर रहा हो। खाली घट को घट नहीं कहा जा सकता। न्यायाधीश जब न्यायालय में कुर्सी पर बैठकर न्याय करता है, तभी वह न्यायाधीश कहा जा सकता है, अन्य समय में नहीं। एकान्ततः अर्थ क्रिया परिणत पदार्थ को ही उस शब्द का वाच्य मानना अन्यथा सर्वथा अपलाप करना एवं भूतनयाभास है। इस प्रकार दार्शनिक दृष्टिकोण से इन सात प्रकार के नयों को प्रतिपादित किया गया है, जिनके अन्तर्गत प्रायः समस्त नयों का समावेश हो जाता है। निश्चयनय और व्यवहार नय : आध्यात्मिक दृष्टिकोण से नय के दो भेद प्रतिपादित किए गए हैं - निश्चय नय और व्यवहार नय। कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में इनको बहुत अच्छी तरह से विशूषित किया है - "ववहारो भूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो॥1s अर्थात् व्यवहारनय अभूतार्थ है और शुद्धनय भूतार्थ है, ऐसा सम्यग्दृष्टि जिन ने बताया है, जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है, वह जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि है। निश्चयनय : जो नय वस्तु के मूल वास्तविक स्वरूप को बताता है, उसे निश्चयनय कहते हैं। निश्चयनय को ही शुद्धनय कहा गया है। शुद्धनय का उपदेश विरल ही मिलता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने शुद्धनय का फल मोक्ष जानकर उसका प्रधानता से विवेचन किया है। शुद्धनय भूतार्थ है, सत्यार्थ है, इसका आश्रय लेने से जीव सम्यग्दृष्टि हो सकता है। इसे जाने बिना आत्मा का ज्ञान-श्रद्धान रूप निश्चय सम्यक्त्व नहीं हो सकता। जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धावान हुए तथा पूर्ण ज्ञान चारित्रवान हो गये उन्हें तो शुद्ध का उपदेश करने वाला शुद्धनय ही जानने योग्य है।” "णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो। एवं भणंति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव॥"
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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