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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) * 321 दिवस परन्तु उसमें संकल्प ढाई हजार वर्ष पहले के दिन का किया गया है। भविष्य का वर्तमान में संकल्प करना, भावी नैगमनय है। जैसे-अरिहन्त को सिद्ध कहना। यहाँ भविष्य में होने वाली सिद्ध पर्याय को वर्तमान में कह दिया गया है। जिस कार्य को प्रारम्भ कर दिया गया हो, परन्तु वह अभी तक पूर्ण नहीं हुआ हो, फिर भी उसे पूर्ण कह देना, वर्तमान नैगमनय है। जैसे-बम्बई जाने के लिए घर से रवाना हुए व्यक्ति के विषय में पूछने पर यह कहना, कि 'वह बम्बई गया है।' यद्यपि अभी वह व्यक्ति स्थानीय स्टेशन पर ही है या मार्ग में ही है। इस प्रकार नैगमनय के विविध रुपों का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। नैगमाभास : अवयव-अवयवी, गुण-गणी, क्रिया-क्रियावान आदि को सर्वथा भिन्न मानना नैगमाभास है, क्योंकि गुण-गुणी से पृथक् अपनी सत्ता नहीं रखता और न गुणों की अपेक्षा करके गुणी ही अपना अस्तित्व बनाये रख सकता है। अतः इनमें कथञ्चित तादात्म्य सम्बन्ध मानना ही उचित है। इसी तरह अवयव-अवयवी, सामान्य-विशेष आदि में भी कथंचित तादात्म्य सम्बन्ध ही घटित हो सकता है। यदि गुण आदि गुणी से सर्वथा भिन्न स्वतंत्र पदार्थ हो तो उनमें गुण-गुणी सम्बन्ध नहीं बन सकता। अतः वैशेषिक दर्शन का गुण आदि गुणी से सर्वथा भिन्न स्वतंत्र पदार्थ मानना नैगमाभास का उदाहरण है। इसी प्रकार सांख्य का ज्ञान और सुख आदि का आत्मा से सर्वथा भिन्न मानना नैगमाभास है। 2. संग्रहनय : वस्तु के द्रव्यत्व आदि सामान्य धर्मों को ग्रहण करने वाला विचार संग्रहनय है। जैसे-जीव के कथन से नरक, तीर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्ध सबका ग्रहण हो जाता है। संग्रहनय एक शब्द के द्वारा अनेक पदार्थों को भी ग्रहण करता है। जैसे-किसी व्यक्ति ने अपने नौकर से कहा – 'दातुन लाओ।' दातुन शब्द को सुनकर वह सेवक केवल दातुन ही नहीं वरन साथ में जीभी, पानी का लौटा, हाथ मुँह पौछने का तौलिया आदि सामग्री भी लाता है। यहाँ दातुन कहने मात्र से तत्सम्बन्धी सब सामग्री का संग्रह हो गया है। संग्रहनय के दो भेद हैं - पर संग्रह और अपर संग्रह। सत्तामात्र को ग्रहण करने वाला नय पर संग्रहनय कहलाता है। जैसे सारा विश्व एक है, क्योंकि सब में सत् पाया जाता है। इसे महासामान्य भी कहते हैं। ___जीव-अजीव आदि अवान्तर सामान्य को ग्रहण करने वाला और अनेक भेदों की अपेक्षा करने वाला अपर संग्रहनय है। जैसे-जीव कहने से सब जीवों का ग्रहण तो हुआ, परन्तु अजीवादि का ग्रहण नहीं हो सका। संग्रहनय में अभेद की प्रधानता रहती है। पर संग्रह में सत् रूप से समस्त पदार्थों का संग्रह किया जाता है तथा अपर संग्रह में एक द्रव्य रूप से समस्त पर्यायों का द्रव्य रूप से समस्त द्रव्यों का गुणरूप से
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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