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________________ 322 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन समस्त गुणों का गोत्व रूप से समस्त गायों का मनुष्यत्व रूप से समस्त मनुष्यों इत्यादि का संग्रह किया जाता है। संग्रहाभास : वेदान्त दर्शन का अद्वैतवाद संग्रहाभास है, क्योंकि इसमें भेद का सर्वथा निराकरण किया गया है। संग्रह नय में अभेद मुख्य होने पर भी भेद का निराकरण नहीं किया जाता है। वह गौण अवश्य हो जाता है, परन्तु उसके अस्तीत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता है। संग्रहनय की उपयोगिता अभेद व्यवहार के लिए है, वस्तु स्थिति का लोप करने के लिए नहीं। ____3. व्यवहारनय : संग्रहनय द्वारा संग्रहीत अर्थ में विधिपूर्वक, अविसंवादी और वस्तुस्थितिमूलक भेद करना व्यवहारनय है। लौकिक व्यवहार के अनुसार विभाग करने वाले विचार को व्यवहारनय कहते हैं। जैसे-जो सत् है, वह द्रव्य और पर्यायरूप है। जो द्रव्य है, उसके जीव आदि छह भेद हैं, जो पर्याय हैं उसके दो भेद हैं, क्रमभावी और सहभावी। जो जीव हैं, उनके अनेक भेद हैं, जैसे संसारी और मुक्त, मुक्तों में भी अनेक मुक्त आदि। यह नय सामान्य को गौण करके विशेष को ही ग्रहण करता है। क्योंकि लोक में घट आदि विशेष पदार्थ को जल धारण आदि क्रियाओं के योग्य देखे जाते हैं, सामान्य में अर्थक्रिया नहीं होती। गोत्व से दूध प्राप्त नहीं होता। रोगी को औषधि दो, इतना मात्र कहने से काम नहीं चलता, औषधि का नाम और आसेवन की विधि आदि बताने से समाधान होता है। व्यवहारनय के बिना किसी भी वस्तु का समग्रतया निर्णय नहीं किया जा सकता। अतएव व्यवहारनय भी अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है। जैसे कोयल पाँचों वर्णों वाली है।' यह कथन निश्चयनय की दृष्टि से सत्य है, फिर भी कोयल का निर्णय नहीं हो पाता क्योंकि उसमें पाँचों वर्ण दृष्टिगोचर नहीं होते। जबकि निश्चयात्मक व्यवहार नय उसका निर्णय कराता है, कि 'कोयल काली है।' कालेपन की प्रधानता से यह कथन सत्य है, किन्तु गौणरूप में पाँचों वर्ण पाये जाते हैं। यह सुस्पष्ट है। व्यवहार नय के दो भेद हैं - सामान्य भेदक और विशेष भेदक। सामान्य संग्रह में भेद करने वाले नय को सामान्य भेदक व्यवहारनय कहते हैं। जैसे-द्रव्य के दो भेद जीव और अजीव। विशेष संग्रह में भेद करने वाले नय को विशेष भेदक व्यवहार नय कहते हैं। जैसे-जीव के चार भेद नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। जो भेद अपने निजी मौलिक एकत्व की अपेक्षा रखता है, वह व्यवहार है और अभेद का सर्वथा तिरस्कार करने वाला व्यवहाराभास है। वैशेषिक की प्रतीतिविरुद्ध द्रव्यादि भेद कल्पना व्यहवहाराभास में आती है। ___4. ऋजुसूत्रनय : वर्तमान क्षण में होने वाली पर्याय को मुख्य रूप से ग्रहण करने वाले नय को ऋजुसूत्र कहते हैं। जैसे 'मैं सुखी हूँ।' यहाँ सुख पर्याय वर्तमान समय में है। ऋजुसूत्रनय वर्तमान क्षण स्थायी सुखादि पर्याय को प्रधान रूप से ग्रहण
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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