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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) 303 अनुयोग की तरह दृष्ट साधर्म्यवत् न होकर सामान्यतोदृष्ट है । 1 अनुयोगद्वार में अनुमान के स्वार्थ और परार्थ ऐसे दो भेद नहीं किए गए हैं अनुमान को इन दो भेदों में विभक्त करने की परम्परा बाद की है। न्यायसूत्र और उसके भाष्य तक यह स्वार्थ और परार्थ ऐसे भेद करने की परम्परा प्रचलित नहीं थी । बौद्ध में दिग्नाग से पहले मैत्रेय, असंग और वसुबन्धु के ग्रन्थों में भी वह नहीं देखी जाती। सर्वप्रथम बौद्धों में दिग्नाग के प्रमाण सम्मुच्चय में और वैदिकों में प्रशस्तपाद के भाष्य में ही स्वार्थ-परार्थ भेदों का उल्लेख मिलता है । बाद के जैन दार्शनिकों ने अनुयोगद्वार स्वीकृत उपर्युक्त तीन भेदों की परम्परा का खण्डन भी किया है। 1. पूर्ववत् : पूर्ववत् की व्याख्या करते हुए अनुयोगद्वार में कहा है, कि पूर्व परिचित किसी लिंग के द्वारा पूर्व परिचित वस्तु का प्रत्यभिज्ञान करना पूर्ववत् अनुमान है। जैसे माता बाल्यकाल में गुम हुए और युवा होकर वापस लौटे अपने पुत्र को किसी पूर्व निश्चित चिह्न से पहचानती है, कि यही मेरा पुत्र है।" - उपाय हृदय नामक बौद्ध ग्रन्थ में भी पूर्ववत् का वैसा उदाहरण है। “यथा षङ्गलि सपिडकमूर्धानं बालं दृष्टवा पश्चात् वृद्धं बहुश्रुतं देवदत्तं दृष्टवा षडङ्गलि-स्मरणात् सोयमिति पूर्ववत्॥' 11138 उपायहृदय के बाद के ग्रन्थों में पूर्ववत् के अन्य दो प्रकार के उदाहरण मिलते हैं। उक्त उदाहरण छोड़ने का कारण यही है, कि उक्त उदाहरण सूचित ज्ञान वस्तुतः प्रत्यभिज्ञान है । अतएव प्रत्यभिज्ञान और अनुमान के विषय में जबसे दार्शनिकों ने भेद करना प्रारम्भ किया है, तब से पूर्ववत् का उदाहरण बदलना आवश्यक हो गया। इससे यह भी कहा जा सकता है, कि अनुयोगद्वार में जो विवेचन है, वह प्राचीन परम्परानुसारी है। पूर्व का अर्थ होता है-कारण। किसी ने कारण को साध्य मानकर कार्य से कारण के अनुमान को पूर्ववत् कहा है। किसी ने कारण को साधन मानकर कारण से कार्य के अनुमान को पूर्ववत् कहा है। किन्तु प्राचीन काल में पूर्ववत् से प्रत्यभिज्ञान ही समझी जाती थी, यह अनुयोगद्वार और उपाय हृदय से स्पष्ट है। 2. शेषवत् : शेषवत् अनुमान के लिए जैन दर्शन में पाँच प्रकार के हेतुओं को अनुमापक बताया गया है। यथा - ‘“से किं तं सेसवं? सेसवं पंचविहं पण्णत्तं तं जहा कज्जेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेणं आसएणं ।' ,,139 1. कार्येण : कार्य से कारण का अनुमान करना । जैसे शब्द से शंख का, ताड़न से भैरी का, केकायित से मयूर का । 2. कारणेन् : कारण से कार्य का अनुमान करना । इसके उदाहरण में अनुमान प्रयोग की व्याख्या तो नहीं है, किन्तु कहा है, कि तन्तु पट का कारण है,
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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