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________________ 302 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन का स्मरण होता है, तदन्तर साध्य का ज्ञान होता है, यह मानस ज्ञान है। अविनाभाव ही अनुमान की मूल धूरी है। सहभाव-नियम और क्रमभाव नियम को अविनाभाव कहते हैं। सहभावी रूप रस आदि तथा वृक्ष और शिंशपा आदि व्याप्य-व्यापक भूत पदार्थों में सहभाव नियम होता है। नियत पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती कृतिकोदय और शाकटोदय में तथा कार्यकारणभूत अग्नि और धूम आदि में क्रमभाव नियम होता है। अविनाभाव के बल तादात्म्य और तदुत्पत्ति (कार्य-कारण भाव) से ही नियंत्रित नहीं कर सकते, क्योंकि जिनमें तादात्म्य नहीं है, ऐसे रूप से रस का अनुमान होता है तथा जिनमें कार्य कारण नहीं है, ऐसे कृतिकोदय को देखकर एक मुहूर्त बाद होने वाले शकटोदय का अनुमान किया जाता है। अर्थात् अविनाभाव तादात्म्य और तदुत्पत्ति तक ही सीमित नहीं है। जिनमें परस्पर तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं भी है, उन पदार्थों में नियत पूर्वोत्तर भाव यानी क्रमभाव होने पर तथा नियत सहभाव होने पर भी अनुमान हो सकता है। साधन : __“निश्चितान्यथानुपत्येक लक्षणो हेतुः॥134 अर्थात् अन्यथानुपपत्ति रूप से निश्चित होना यही साधन अथवा हेतु का एकमात्र लक्षण है। अन्यथानुपपत्ति, अविनाभाव और व्याप्ति ये सब एकार्थक शब्द है। अतः जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है, उसे साधन कहते हैं। साध्य : __ "अप्रतीतमनिराकृतमभीप्सितं साध्यम्॥"15 जिसे सिद्ध करना हो, वह साध्य कहलाता है। साध्य को अप्रतीत, अनिराकृत और अभिप्सित कहा है। जो प्रतिवादी को स्वीकृत न हो, जिसमें शंका हो, यह बताने के लिए साध्य को अप्रसिद्ध या अप्रतीत कहा है। जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित होने के कारण सिद्ध करने योग्य है, यह बताने के लिए साध्य को शक्य या अनिराकृत कहा है। जो वादी को सिद्ध नहीं है, वह साध्य नहीं हो सकता, यह बताने के लिए साध्य को ‘अभिप्सित' अथवा अभिप्रेत कहा है, जो वादी को इष्ट हो, वही वस्तु साध्य होती है। अनुमान के भेद : जैन दर्शन में अनुमान के तीन भेद बताए गए हैं - पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्ट साधर्म्यवत्। जैसा कि अनुयोगद्वार सूत्र में अनुमान का स्वरूप कहा __“अणुमाणे तिविहे पण्णत्ते। तं.-पुव्ववं सेसवं दिवसाहम्मवं।136 प्राचीन चरक, न्याय, बौद्ध और सांख्य ने भी अनुमान के तीन भेद ही बताए हैं। उनमें से प्रथम दो तो वही हैं, जो अनुयोगद्वार में है, लेकिन अन्तिम भेद का नाम
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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