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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) * 301 अनुग्राहक है, लेकिन स्वयं प्रमाण नहीं है। बौद्ध तर्क रूप विकल्पात्मक ज्ञान को व्याप्ति का ग्राहक मानते हैं, किन्तु वह प्रत्यक्ष पृष्ठभावी होने से प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत अर्थ को विषय करने वाला एक विकल्प है, अतः प्रमाण नहीं है। __जैन दर्शन का मन्तव्य है, कि तर्क अपने विषय में अविसंवादी होने के कारण स्वयं प्रमाण है। जो स्वयं प्रमाण न हो, वह प्रमाणों का अनुग्राहक कैसे हो सकता है? अप्रमाण से न तो प्रामण के विषय का विवेचन हो सकता है, न परिशोधन ही। जिस तर्क में विसंवाद हो उसे तर्काभास कहा जा सकता है, परन्तु अविसंवादी तर्क को भी प्रमाण से बहिर्भूत रखना उचित नहीं हो सकता। संसार में जहाँ कहीं जब कभी धुंआ है, वह सब अग्नि के होने पर ही होता है, अग्नि के अभाव में नहीं होता। यह सार्वत्रिक और सार्वकालिक बोध न तो इन्द्रिय प्रत्यक्ष कर सकता है, न सुखादि का संवेदक मानस प्रत्यक्ष ही। इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नियत है और वर्तमान मालिक है। मानस प्रत्यक्ष विशद है और व्याप्ति ज्ञान अविशद है, अतः मानस प्रत्यक्ष व्याप्ति का ग्रहण नहीं कर सकता। अनुमान से व्याप्ति का ग्रहण इसलिए नहीं हो सकता, कि स्वयं अनुमान की उत्पत्ति व्याप्ति के अधीन है। तर्क को प्रमाण न मानने पर अनुमान भी प्रमाण नहीं हो सकेगा। जिस व्याप्ति ज्ञान के बल पर सुदृढ़ अनुमान की इमारत खड़ी की जा रही है, उस व्याप्ति ज्ञान को अप्रमाण कहना या उसे प्रमाण से बाहर रखना कैसे उचित हो सकता है। योगी प्रत्यक्ष द्वारा व्याप्ति ग्रहण की बात निरर्थक है, क्योंकि जो योगी है, उसे व्याप्ति ग्रहण करने का कोई प्रयोजन ही नहीं है, वह तो प्रत्यक्ष से ही समस्त साध्य साधन भूत पदार्थों को जान लेता है। बौद्धों ने विकल्पात्मक होने से तर्क को अप्रमाण माना है, परन्तु विकल्पात्मक तो अनुमान भी है, उसे तो बौद्धों ने भी प्रमाण माना है। जिस प्रकार अनुमान विकल्प होकर भी प्रमाण है-उसी तरह विकल्प रूप तर्क को भी प्रमाण मानना चाहिये। तर्क अपने विषय में संवादी है और संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रूप समारोप का व्यवच्छेदक है, अतः वह प्रमाण है। अनुमान : __ “साधनात्साध्यविज्ञानम् अनुमानम्।।133 अर्थात् साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं। लिंग ग्रहण और व्याप्ति-स्मरण के पीछे होने वाला ज्ञान अनुमान कहलाता है। यह ज्ञान अविशद्अस्पष्ट होने से परोक्ष है, परन्तु अपने विषय में संशय-विपर्यय, अनध्यवसाय आदि समारोपों का निराकरण करने के कारण प्रमाण है। साधन से साध्य का नियत ज्ञान अविनाभाव के बल से ही होता है। सर्वप्रथम साधन को देखकर पूर्वगृहीत अविनाभाव
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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