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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 231 अपनी बाल, युवा, वृद्ध आदि अवस्थाओं में परिवर्तित हो रहे हैं, फिर भी हमारा एक ऐसा अस्तीत्व तो है ही जो इन सब परिवर्तनों में हमारी एकरूपता रखता है। अर्थात् व्यक्ति का स्थायी अस्तीत्व ही उसमें अवस्था परिवर्तन को धारण करता है। अतएव यह पूर्णतया सिद्ध है, कि प्रत्येक सचेतन-अचेतन पदार्थ परिणामी नित्य है, प्रतिक्षण नित्यानित्यात्मक है, उत्पाद-व्यय-ध्रोव्यात्मक रूप त्रिलक्षण वाला है। 3. भेदाभेदात्मक तत्त्व : स्याद्वाद के अनुसार द्रव्य और पर्याय, गुण और गुणी, अवयव और अवयवी, कार्य और कारण, कर्ता और क्रिया, वाच्य और वाचक आदि में न तो सर्वथा भेद है और न सर्वथा अभेद ही। ये परस्पर कथंचित भिन्न है और कथंचित अभिन्न। इनमें सर्वथा भेद मानने से गुण-गुणीभाव आदि नहीं बन सकते। सर्वथा अभेद मानने पर भी यह गुण है और यह गुणी, यह व्यवहार नहीं हो सकता। यदि गुण गुणी से सर्वथा भिन्न है, तो अमुक गुण का अमुक गुणी से ही नियत सम्बन्ध कैसे किया जा सकता है? अवयवी आदि अवयवों से सर्वथा भिन्न है, तो एक अवयवी अपने अवयवों में सर्वात्मना रहता है या एक देश से? यदि पूर्ण रूप से तो जितने अवयव हैं, उतने ही अवयवी मानना होगा। यदि एक देश से तो जितने अवयव हैं, उतने प्रदेश उस अवयवी के स्वीकार करने होंगे। इस प्रकार सर्वथा भेद और अभेद मानने पर अनेक दोप उपस्थित होते हैं। अतः तत्त्व को कथंचित भेदाभेदात्मक ही मानना चाहिये। जो द्रव्य है, वही अभेद है और जो गुण और पर्याय है, वही भेद। दो पृथक् सिद्ध द्रव्यों में जिस प्रकार अभेद काल्पनिक हैं, उसी प्रकार एक द्रव्य का अपने गुण पर्यायों से भेद मानना भी सिर्फ समझने और समझाने के लिए है। प्रत्येक अखण्ड तत्त्व या द्रव्य को व्यवहार में उतारने के लिए उसका अनेक धर्मों के आकार के रूप में वर्णन किया जाता है। उस द्रव्य को छोड़कर धर्मों की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। तथा गुण, पर्याय को छोड़कर द्रव्य का भी कोई स्वतन्त्र अस्तीत्व नहीं है। इस प्रकार द्रव्य सामान्य के अपने गुण-पर्यायों के साथ भेदाभेदात्मकता की व्याख्या करने के पश्चात् दो भिन्न द्रव्यों के संबंध में हम इस स्यादवाद दृष्टि का परिक्षण करेंगे। जैन दर्शन ने छः द्रव्य माने हैं, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनमें से धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो सदैव स्वरूप परिणमन ही करते हैं। अतः परस्पर संबंध का प्रश्न ही नहीं उठता है। किंतु जीव तथा पुद्गल द्रव्य स्वरूप परिणमन भी करते हैं, किंतु इनमें विभाव परिणमन भी होता है। अतः आत्मा और शरीर के संबंध में यह प्रश्न उठता है, कि ये परस्पर भिन्न है अथवा अभिन्न। इस संबंध में विविध मन्तव्य हमारे समक्ष हैं। चार्वाक दर्शन आत्मा को शरीर से भिन्न स्वीकार नहीं करता है। वह जड़ से ही चेतन की उत्पत्ति मानता है और शरीर का विनाश होने पर आत्मा का भी विनाश हो जाना स्वीकार करता है। अनेक दर्शन
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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