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________________ 230 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन किसी भी प्रकार के परिणमन की संभावना नहीं होने से कोई अर्थक्रिया नहीं हो सकेगी और अर्थक्रियाशून्य होने से पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष, लेन-देन आदि समस्त व्यवस्थाएँ नष्ट हो जाएगी। यदि पदार्थ एक जैसा कूटस्थ नित्य रहता है, तो जग के प्रतिक्षण के परिवर्तन असंभव हो जाएंगे और यदि पदार्थ को सर्वथा विनाशी माना जाता है, तो पूर्व पर्याय का उत्तर पर्याय के साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध न होने के कारण लेन-देन, बन्ध-मोक्ष, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि व्यवहार उच्छिन्न हो जायेंगे। जो कर्ता है, उसके भोगने का क्रम ही नहीं रहेगा। नित्य पक्ष में कर्तृत्व नहीं बनता,तो अनित्य पक्ष में करने वाला कोई और भोगने वाला कोई और होगा। उपादानउपादेयभाव मूलक कार्यकारण भाव भी इस पक्ष में नहीं बन सकता। अतः समस्त लोक-परलोक तथा कार्यकारण भाव आदि की सुव्यवस्था के लिए पदार्थों में परिवर्तन के साथ ही साथ उसकी मौलिकता और अनादि अनन्त रूप द्रव्यत्व का आधारभूत ध्रुवत्व भी स्वीकार करना ही चाहिये। ध्रुवत्व को स्वीकार किए बिना द्रव्य की मौलिकता सुरक्षित नहीं रह सकती। अतः प्रत्येक द्रव्य अपनी अनादि-अनन्त धारा में प्रतिक्षण सदृश, विसदृश, अल्पसदृश, अर्द्धसदृश, आदि अनेक रुप परिणमन करता हुआ भी कभी समाप्त नहीं होता, उसका समूल उच्छेद या विनाश नहीं होता। आत्मा को मोक्ष हो जाने पर भी उसका विनाश नहीं होता वरन् वह अपने शुद्धतम स्वरुप में स्थिर हो जाता है। उस समय उसमें वैभाविक परिणमन नहीं होकर द्रव्यगत उत्पाद-व्यय स्वरुप के कारण स्वभावभत सदृश परिणमन सदैव होता रहता है। कभी भी यह परिणमन चक्र रुकता नहीं है और न कभी कोई द्रव्य समाप्त हो सकता है। अर्थात् परिवर्तन स्थायी में होता है और स्थायी वही हो सकता है, जिसमें परिवर्तन हो। सारांश यह है, कि निष्क्रियता और सक्रियता, स्थिरता और गतिशीलता का जो सहज समन्वित रुप है, उसे ही द्रव्य कहा गया है। जैसा कि वैज्ञानिकों के अनुसार अणु की रचना तीन प्रकार के कणों से होती है- 1. प्रोटोन, 2. इलेक्ट्रोन, 3. न्यूट्रोन। धनात्मक कण प्रोटोन है, यह परमाणु का मध्यबिन्दु होता है। ऋणात्मक कण इलेक्ट्रोन है। यह धनाणु के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। उदासीन कण न्यूट्रोन है। इसी प्रकार अपने केन्द्र में प्रत्येक द्रव्य ध्रुव, स्थिर और निष्क्रिय है। उसके चारों और पर्याय परिवर्तन की एक श्रृंखला है। हर समय कोई एक पर्याय उसकी होगी ही। वर्तमान में जो पर्याय है, वह अतीत की पर्याय का विनाश करके अस्तित्व में आई है और उत्तर पर्याय को उत्पन्न करके स्वयं नष्ट हो जाएगी। वस्तुतः पूर्व का विनाश और उत्तर का उत्पाद दो चीजें नहीं है, वरन् एक ही करण से उत्पन्न होने के कारण पूर्व विनाश ही उत्तरोत्पाद हैं। ‘जो नष्ट होता है, वही उत्पन्न होता है और वही ध्रुव है।' यह कथन सुनने में तो प्रकट विरोध लगता है, किंतु वस्तु स्थिति यही है जैसे, कि हम स्वयं
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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