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________________ 232 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन आत्मा का शरीर से एकान्त भिन्नत्व भी स्वीकार करते हैं। जैन दर्शन इस समस्या का समाधान भी अपनी स्याद्वाद दृष्टि से ही करता है। उनके अनुसार आत्मा कथंचित शरीर से भिन्न भी है और अभिन्न भी है। आत्मा को शरीर से भिन्न तत्त्व न माना जाए और दोनों का एकत्व स्वीकार किया जाए तो शरीर के नाश के साथ आत्मा का भी नाश मानना होगा और उस स्थिति में पुनर्जन्म एवं मुक्ति की कल्पना निराधार हो जाएगी। किन्तु युक्ति और आगम आदि प्रमाणों से पुनर्जन्म आदि की सिद्धि होती है, अतः आत्मा को शरीर से पृथक् मानना समीचीन है। साथ ही अनादि काल से जीव शरीर के साथ ही रहा हुआ है और वह कर्म शरीर के माध्यम से ही करता है तथा कृतकर्मों का फलोपभोग भी शरीर के द्वारा ही होता है। शरीर पर प्रहार होता है, तो दुःख की अनुभूति आत्मा को होती है। जैसे देवदत्त पर प्रहार किया जाए तो जिनदत्त को दुःखानुभव नहीं होता, क्योंकि देवदत्त के शरीर से जिनदत्त की आत्मा भिन्न है। इसी प्रकार यदि देवदत्त की आत्मा देवदत्त के शरीर से भी सर्वथा भिन्न हो तो उसे भी दुःख का अनुभव नहीं होना चाहिये। इससे स्पष्ट हो जाता है, कि जैसे देवदत्त के शरीर और जिनदत्त की आत्मा में भेद है, वैसा भेद देवदत्त के शरीर और देवदत्त की आत्मा में नहीं है। यही देह और आत्मा का अभेद है। अर्थात् आत्मा और शरीर में भी भेदाभेदात्मक संबंध है। 4. एकानेकात्मक तत्त्व : सत्ता एक है या अनेक? इसके सन्दर्भ में भी स्याद्वाद का मन्तव्य समन्वयात्मक ही है। अर्थात् वस्तु या सत्ता एक भी है और अनेक भी है। समस्त पदार्थ सत् सामान्य की दृष्टि से तो एक ही है और द्रव्यों के पृथक्-पृथक् स्वरूप भेद से अनेक रूप है। यदि इन सबको एक (अद्वैत) मान लिया जाए, तो प्रत्यक्ष दृष्ट कार्यकारण का भेद लुप्त हो जाएगा, क्योंकि एक ही स्वयं उत्पाद्य और उत्पादक दोनों ही बन सकता है। उत्पाद्य और उत्पादक दोनों अलगअलग होते हैं। इसी प्रकार यदि वस्तु सर्वथा एक हो तो पर्यायों और गुणों का उनमें अनुस्युत रहने वाले एक द्रव्य के समुदाय के रूप में साधर्म्य और प्रत्ययभाव आदि कुछ नहीं बन सकेंगे। अतएव दोनों एकान्तों का समुच्चय ही वस्तु है। वस्तु को सर्वथा एक या अनेक मानना संभव ही नहीं है। दो द्रव्य व्यवहार के लिए ही एक कहे जा सकते हैं, किन्तु वस्तुतः दो पृथक् स्वतंत्र सिद्ध द्रव्य एक सत्ता वाले नहीं हो सकते। पुद्गल द्रव्य के अनेक अणु जब स्कन्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं, तब उनका ऐसा रासायनिक मिश्रण होता है, जिससे ये एक निश्चित काल तक एक सत्ताक जैसे हो जाते हैं। ऐसी दशा में हमें प्रत्येक द्रव्य का विचार करते समय द्रव्य दृष्टि से उसे एक मानना होगा और गुण तथा पर्यायों की दृष्टि से अनेक। एक ही मनुष्य जीव अपनी बाल, युवा, वृद्ध आदि अवस्थाओं की दृष्टि से अनेक रूप से अनुभव में आता है। द्रव्य अपनी गुण और पर्यायों से, संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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