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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 229 मानता है। इनके सत्कार्यवाद के अनुसार जो असत् है, उसकी उत्पत्ति नहीं होती और जो सत् है, उसका विनाश नहीं होता, अपितु केवल रूपान्तर होता है। उत्पत्ति का तात्पर्य है - सत् की अभिव्यक्ति और विनाश का तात्पर्य है-सत् की अव्यक्ति। न्यायवैशेषिक दर्शन आरम्भवादी है। वह कार्य को अपने कारण में सत् नहीं मानता। इनके असत्कार्यवाद के अनुसार असत् की उत्पत्ति होती है और सत् का विनाश होता है। इसलिए नैयायिक ईश्वर को कूटस्थ नित्य और दीपक को सर्वथा अनित्य मानते हैं। बौद्धदर्शन के अनुसार स्थूल द्रव्य सूक्ष्म अवयवों का समूह है तथा द्रव्य क्षणविनश्वर है। उनके विचारानुसार कुछ भी स्थिति नहीं है। जो दर्शन एकान्त नित्यवाद को मानते हैं, वे भी जो हमारे प्रत्यक्ष हैं, उस परिवर्तन की अपेक्षा नहीं कर सकते और जो दर्शन एकान्त अनित्यवाद को मानते हैं, वे भी जो हमारे प्रत्यक्ष हैं, उस स्थिति की अपेक्षा नहीं कर सकते। इसीलिए ही नैयायिकों ने दृश्य वस्तुओं को अनित्य मानकर उनके परिवर्तन की विवक्षा की और बौद्धों ने सन्तति मानकर उनके प्रवाह की विवेचना की। आधुनिक वैज्ञानिक रूपान्तरवाद के सिद्धान्त को एक मत से स्वीकार करते हैं। जैसे एक मोमबत्ती है, जलाने पर कुछ ही क्षणों में उसका पूर्ण नाश हो जाता है। प्रयोगों के द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि मोमबत्ती के नाश होने पर अन्य वस्तुओं की उत्पत्ति होती है। ___वैज्ञानिक अनुसंधान के द्वारा यह सिद्ध हो चुका है, कि पुद्गल शक्ति में और शक्ति पुद्गल में परिवर्तित हो सकती है। सापेक्षवाद की दृष्टि से पुद्गल के स्थायित्व के नियम व शक्ति के स्थायित्व के नियम को एक ही नियम में समाविष्ट कर देना चाहिये। उसकी संज्ञा पुद्गल और शक्ति के स्थायित्व का नियम इस प्रकार कर देना चाहिये। स्याद्वाद की दृष्टि से सत् कभी विनष्ट नहीं होता और असत् की कभी उत्पत्ति नहीं होती। ऐसी कोई स्थिति नहीं जिसके साथ उत्पाद और विनाश न रहा हो अर्थात् जिनकी पृष्ठभूमि में स्थिति है, उनका उत्पाद और विनाश अवश्य होता है। सभी द्रव्य उभय-स्वभावी हैं। उनके स्वभाव की विवेचना एक ही प्रकार से नहीं हो सकती। असत् की उत्पत्ति नहीं होती और सत् का कभी नाश नहीं होता। इस द्रव्य नयात्मक सिद्धान्त से द्रव्यों की ही विवेचना हो सकती है, पर्यायों की नहीं। उनकी विवेचनाअसत् की उत्पत्ति और सत् का विनाश होता है - इस पर्यायनयात्मक सिद्धान्त के द्वारा ही की जा सकती है। इन दोनों को एक शब्द में परिणामी नित्यवाद अथवा नित्यानित्यवाद कहा जा सकता है। इसमें स्थायित्व और परिवर्तन की सापेक्ष रूप से विवेचना है। __ इस विश्व में ऐसा द्रव्य नहीं है, जो सर्वथा ध्रुव हो और ऐसा भी द्रव्य नहीं है, जो सर्वथा परितर्वनशील ही हो। यदि द्रव्य को सर्वथा नित्य माना जाता है, तो उसमें
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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